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जैन - दर्शन में सामाजिक न्याय [ निशी सदयात
समाज में वर्तमान प्रत्येक व्यक्ति के साथ न्याय हो, उसकी योग्यता और गुण के अनुसार उसको पद प्राप्त हो, इस प्रकार का विचार सभी को आकृष्ट करता है । सामाजिक न्याय मानव की शाश्वत खोज रही है । वह आदर्श समाज और आदर्श राज्य की कल्पना का मूल आधार है ।
लैटिन भाषा के Justilia से निकला अंग्रेजी का Justice अर्थात् न्याय - शब्द का अर्थ है - विवेक के अनुसार आचरण तथा सामाजिक का अर्थ समुदायों में रहने की प्रवृत्ति, यूथचारिता की प्रवृत्ति, सहयोग, श्रम विभाजन, परस्पर संबंधों से प्रभावित होने की प्रवृत्ति है। अतः सामाजिक न्याय, समूह में उचित आचार, विवेकयुक्त व्यवहार, सहयोग, श्रम विभाजन, समन्वय, समानुपातिक वितरण, यथायोग्य व्यवहार अथवा स्वधर्म पालन की सुविधा देता है ।
प्राचीन यूनानी दार्शनिकों से आधुनिक पाश्चात्य दार्शनिकों ने तथा भारतीय दर्शन के लगभग सभी सम्प्रदायों ने परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से सामाजिक न्याय की स्थापना करने का प्रयास किया है किन्तु जैन दर्शन में सामाजिक न्याय के समस्त पहलुओं का विस्तृत विवेचन करते हुए कई ऐसे सिद्धांत प्रतिपादित किये गये हैं जिनसे विभिन्न प्रकार के वैषम्य या विरोधों का उपशमन हो जाता है । सामाजिक न्याय समाज के आर्थिक, सामाजिक, नैतिक, धार्मिक, राजनीतिक, शैक्षिक, लैंगिक, वैचारिक, मानसिक इत्यादि समस्त पक्षों से सम्बद्ध है । जैन दर्शन ने न केवल परम्परागत समस्याओं का समाधान किया है वरन् वह वर्तमान युग की समस्याओं के समाधान में भी पूर्णतया सक्षम है।
जैन- दर्शन सामाजिक न्याय के आर्थिक पक्ष हेतु अपरिग्रह का सिद्धान्त, सामाजिक पक्ष हेतु वर्णाश्रम, पुरुषार्थ, स्वस्थान इत्यादि, नैतिक पक्ष को सबल बनाने हेतु गुणस्थान के साथ ही समूचा जैन — नीतिशास्त्र और उसके सिद्धांत, धार्मिक क्षेत्र में अणुव्रत और महाव्रत, वैचारिक उदात्तता का सिद्धांत अनेकांतवाद, मानसिक समत्व हेतु अनाशक्ति, वीतरागता और ऐसे अनगिनत सिद्धांत हैं जो पूर्ण रूप से व्यावहारिक भी हैं । इन्हें व्यवहृत करने के पश्चात् हमें सामाजिक न्याय के बारे में अलग से कुछ सोचने की आवश्यकता ही नहीं है। सबसे बढ़कर है जैन-दर्शन का " अहिंसा - विचार", जिस पर ये सारे सिद्धांत और महाव्रत अवलम्बित हैं ।
खण्ड २३, अंक २
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