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है, इस कदर उस वृक्ष को नष्ट करने में लग जाता है, कि यदि उस पर ध्यान न दिया जाय, तो ऐसे वृक्षों का अस्तित्व ही समाप्त हो जाये । जैसे यूरोप में, जब से नीम की उपयोगिता का पता लगा, तो वे भारत से इतनी मात्रा में नीम की पत्तियों का आयात कर रहे हैं कि ऐसा लगता है कि भारत में नीम के अस्तित्व को ही खतरा हो गया
मनुष्य ने अपने लालच से पर्यावरण को असंतुलित कर, कई नई-नई समस्याएं खड़ी कर ली हैं। आज जंगल खाली हो रहे हैं और वह लाखों-करोड़ों रुपये लगाकर वापस जंगल लगाने की कोशिश कर रहा है । लेकिन यह कार्य इतना आसान नहीं है। जंगल में जो वनस्पतियां थीं, वे हजारों-लाखों सालों में प्राकृतिक चुनौतियों को सह कर (Natural Selection से) अनुकूलित हो गई थीं। अब जो नये पेड़ वह लगाता है, वे इतनी आसानी से उस रूप में अनुकूलित नहीं होते हैं व मनुष्य के द्वारा लगाया हुआ जंगल वापस उतनी आसानी से पनपना और भी मुश्किल है। आज हो यही रहा है कि एक ओर तो मनुष्य चोरी-छिपे जंगल काट रहा है, दूसरी ओर जो पर्यावरण को बचाना चाहते हैं वे जंगल लगाने की कोशिश करते हैं । जंगलों को बचाने के लिये, जब तक मनुष्य में हर जीव को बचाने की जागृति पैदा न हो, तब तक जंगलों को वचाना मुश्किल होगा, और उजड़े जंगलों को उनके सूक्ष्म पर्यावरण सहित लगाना व पनपना और भी मुश्किल है।
किसी जीव की महत्व और उपयोगिता केवल मनुष्य के लिये नहीं सोची जानी चाहिये । एक जीव आज मनुष्य के लिये अनुपयोगी हो सकता है, लेकिन इस संसार के अनन्त जीवों में से कईयों के लिये उपयोगी भी हो सकता है। हर जीव का सृष्टि में अपना महत्व है, "कौन किसके लिये", इसकी वैज्ञानिक नानकारी अभी तक बहुत सीमित है, लेकिन जैन दर्शन में हर जीव को बचाने का एक जो सिद्धांत दिया है वह पर्यावरण को बचाने का मार्ग प्रशस्त करता है ।
-प्रोफेसर भोपालचंद लोढा
कुलपति, जैन विश्व भारती संस्थान
लाडनूं-३४१ ३०६
खंड-२३, अंक-२
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