Book Title: Tattvarthadhigam Sutra
Author(s): Labhsagar Gani
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 14
________________ प्रथमोऽध्यायः दर्शन का विरह काल ( गये बाद फिर आने के बीच का काल ) कितना ? एक जीव आश्रयी (के हिसाब से) जघन्य अन्त. मुहूर्त, उत्कृष्ट अर्ध पुद्गलपरावर्त, भिन्न २ जीवों के हिसाब से अन्तर (समय की छेटी) नहीं। ७ सम्यग्दर्शन में कोनसा भाव होता है ? औदायिक, पारिणामिक, के सिवाय बाकी के तीन भावों में सम्यग्दर्शन होता है । ८ तीन भावों में रहे हुवे सम्यग्दर्शनी का अल्पबहुत्व किस तरह ? सबसे थोड़ा औपशमिक भाव वाला होता है, उससे क्षायिक असंख्यात गुणा, क्षायोपशमिक उससे मी असंख्यात गुणा और सम्यग्दृष्टि तो अनन्ता हैं ( केवली और सिद्ध मिलकर अनन्ता है जिससे ) (९) मति-श्रुता-बधि मनःपर्याय-फेवलानि ज्ञानम् । मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय, और केवल ये पाँच ज्ञान के भेद हैं जिसका हाल ( वर्णन ) आगे लिखा जावेगा। (१०) तत् प्रमाणे । वे (पाँच तरह के ज्ञान) (दो) प्रमाण ( प्रत्यक्ष-परोक्षरूप) में बटे हुए हैं। (११) अाये परोक्षम् । पहले दो मति-श्रुतज्ञान परोक्षप्रमाण हैं । इन दोनों ज्ञानों में निमित्त (जरिये) की आवश्यकता होने से परोक्ष हैं। क्योंकि मतिज्ञान इन्द्रियनिमित्तक और अनिन्द्रिय ( मन ) निमित्तक है। और श्रुतज्ञान मतिपूर्वक और दूसरे के उपदेश से होता है। (१२) प्रत्यक्षमन्यत् । उपर कहे हुवे दो ज्ञान के सिवाय दूसरे तीन ज्ञान- (अवधि, मनःपर्याय, और केवल ) प्रत्यक्षप्रमाण है । इन्द्रिय के जरिये

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