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श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् हुवा जीव मूल प्रकृति से अभिन्न उत्तर प्रकृति में कर्म निमित्तक श्रनाभोग (अनुपयोग) वीर्य पूर्वक कर्म का संक्रमण करता है, बन्धविपाक के निमित्त से अन्य जाति होने से मूल प्रकृतियों में संक्रमण नहीं होता, उत्तर प्रकृतियों में भी दर्शनमोहनीय, चारित्र मोहनीय, सम्यक्त्व मोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय और आयुष्क नाम कमे का जात्यन्तर, अनुबन्ध, विपाक और निमित्त से अन्य जाति होने से सक्रमण नहीं होता, अपर्वतन ( कम होना) तो सब प्रकृतियों का होता है। (२३)
स यथा नाम वह अनुभाव गति जाति आदि के नाम. मुजब भोगने में आती है। (२४)
ततश्च निर्जरा। विधाक से निर्जरा होती है।
यहाँ सूत्र में "व" शब्द रक्खा है, वह दूसरे हेतु की अपेक्षा बतलाता है यानी-अनुभाव से और अन्य प्रकार से (तरसे) निर्जरा होती है। (२५) नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाढस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः।
नाम कर्म के सबब से सब आत्म प्रदेशों से मन आदि के व्यापार से सूक्ष्म उसी आकाश प्रदेश की अवगाह कर रहे हुवे, स्थिर रहे हुवे, अनन्तानन्त प्रदेश वाले कर्म पुद्गल सब तरफ से बधाते हैं।
नाम प्रत्ययिक-नाम कर्म के सबब से पुद्गल बंधाते हैं. किस दिशा से बंध ते हैं ? ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक सब दिशाओं