Book Title: Tattvarthadhigam Sutra
Author(s): Labhsagar Gani
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 117
________________ १०८ श्री तत्वार्थाधिगमसूत्रम् वह मोक्ष जाता है एकान्तर पश्चात् कृतगतिक नय की अपेक्षा से सब गतियों से आया हुआ सिद्धपद को पाता है । (४) लिंग-लिंग की अपेक्षा से अन्य विकल्प है । उसके तीन प्रकार हैं (१) द्रव्यलिंग (२) भावलिंग और (३) अलिंग. प्रत्युत्पन्नभाष की अपेक्षा से लिंग रहित सिद्ध होता है । पूर्वभाव की अपेक्षा से भाव लिंगी ( भाव चारित्री ) स्वलिंग से ( साधु वेष में ) सिद्ध होता है । द्रव्यलिंग के तीन प्रकार है- स्वलिंग, अन्यलिंग और गृहिलिंग उसके आश्रयो भजना जाननी ( यानी हो या नहीं ) सब भाव लिंग को प्राप्त हों ( करे ) वे मोक्ष जाते हैं । (५) 6ीर्थ - तीर्थंकर के तीर्थ में तीर्थंकर सिद्ध होते हैं - तीर्थंकर पणा अनुभव करके मोक्ष जाते हैं तो तीर्थंकर प्रत्येक बुद्धादि होकर सिद्ध होते हैं और तीर्थंकर साधु होकर सिद्ध होते हैं इस तरह तीर्थकर के तीर्थ में भी पूर्वोक्त भेदभाव वाले सिद्ध होते हैं । (६) चारित्र - प्रत्युत्पन्नभाव की अपेक्षा से नो चारित्री नो अचारित्री सिद्ध होता है । पूर्वभाव प्रज्ञापनीय के दो भेद हैं (१) अनंतर पश्चातकृतिक और परंपरपश्चात् कृतिक अनंतरपश्चात्कृतिक (जिसको किसही चारित्र का अंतर न हो एसा ) नय की अपेक्षा से यथाख्यात चारित्री सिद्ध होता है । परंपरपश्चात्कृतिक (अन्य चारित्र से सान्तर) नय के व्यंजित और अव्यंजित यह दो भेद हैं । अन्यंजित सामान्यतः संख्या मात्र से कहे हुवे और व्यंजित विशेष नाम द्वारा कहे हुए । अव्यंजित की अपेक्षा से तीन चारित्रवाले, चार चारित्रवाले और पांच चारित्र वाले सिद्ध होते हैं । व्यंजित नय की अपेक्षा से सामायिक सूक्ष्म संपराय और यथाख्यात चारित्र वाले सिद्ध होते हैं, अथवा सामायिक, छेदोपस्थापनीप, सूक्ष्म संपराय और यथाख्यात चारित्र वाले सिद्ध होते हैं, अथवा छेदोपस्थापनीय, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म संपराय और यथाख्यात

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