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श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् उस (सकल कर्म का (क्षय) के पीछे जीव ऊँचे लोकान्ततक जाता है।
कर्म का क्षय होने पर देह वियोग, सिद्धथमान गति और लोकांत की प्राप्ति ये तीनों इस मुक्त जीव को एक समय एक साथ होते हैं। प्रयोग-(वीर्यान्तराय का क्षय अथवा क्षयोपशम जन्य चेष्टा रूप) परिणाम से अथवा स्वभाविक हुई गतिक्रिया विशेष के कार्य द्वारा उत्पत्ति काल, कार्यारम्भ और कारण का विनाश जिस तरह एक साथ होता है उसी तरह यहाँ भी समझना । [६] पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाद्वन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच
तद् गतिः । ___ पहले के प्रयोग से, असंगपणे से, बन्धछेद मे और सिद्धात्मा की गति का स्वभाव वैसा होने से उन मुक्त जीवों की गति (गमन) होती है। [७] क्षेत्रकालगतिलिङ्गतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधितज्ञानावगा
हनान्तरसङ्ख्याल्पबहुत्वतः साध्याः। क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येकबुद्धबोधित, ज्ञान, अवगाहना, अन्तर, संख्या और अल्पबहुत्व इन बारा अनुयोग द्वारों से सिद्ध का विचार करना। उसमें पूर्वभाव प्रज्ञापनीय और प्रत्युत्पन्नभाव प्रज्ञापनीय इन दो नय की अपेक्षा से सिद्ध का विचार करने का है-अतीत काल के भाव को जणाने वाला पूर्व. भाव प्रज्ञापनीय नय कहलाता है और वर्तमान भाव को जणानेवाला प्रत्युत्पन्नभाव प्रज्ञापनीय नय कहलाता है।
(१) क्षेत्र-किस क्षेत्र में सिद्ध होते हैं ? प्रत्युत्पन्नभाव प्रज्ञापनीय नय के भाश्रय से सिद्धक्षेत्र में सिद्ध होते हैं । पूर्वभाव