Book Title: Tattvarthadhigam Sutra
Author(s): Labhsagar Gani
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 110
________________ नवमोऽध्यायः (४३) एकाश्रये सवितर्के पूर्वे । __पहले के दो शुक्ल ध्यान एक द्रव्याश्रयी वितर्क सहित होता है, (प्रथम पृथकत्ववितर्क विचार सहित है।) [४४] अविचारं द्वितीयम् । विचार रहित और वितर्कसहित दुसरा शुक्ल ध्यान होता है। [५] वितर्कः श्रुतम् । यथा योग्य श्रुत ज्ञान वह वितर्क जानना। [४६] विचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसक्रान्तिः । ____ अर्थ, व्यञ्जन और योग का जो संक्रमण वह विचार। ये अभ्यन्तर प संवर होने से नवीन कर्म संचय का निषेधक है, निर्जरा रूप फल देने का होने से कम की निर्जरा करने वाला है, और नये कर्म का प्रतिषेधक तथा पूर्वोपार्जित कर्म का नाशक होने से मोक्ष मार्ग को प्राप्त कराने वाला है। [४७] सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोप शमकोपशान्तमोहलपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसङख्येयगुणनिर्जराः। १ सम्यग दृष्टी, २ श्रावक, ३ विरत (साधु), ४ अनन्तानुबंधी को नाश करने वाला, ५ दर्शन मोह पक, ६ मोह को शमाता, ७ उपशान्त मोह, ८ मोह को क्षोण करता, ९ क्षीण मोह और १० केवली ये उतरोत्तर एक एक से असंख्य गुणे अधिक निर्जरा करने वाले हैं। [४८] पुलाकबकुशकुशीलनिग्रन्थस्नातका निर्ग्रन्थाः ।

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