Book Title: Tattvarthadhigam Sutra
Author(s): Labhsagar Gani
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 96
________________ अष्टमोऽध्यायः ८७ पहले के तीन कर्म यानी ज्ञानावरण, दर्शनावरण और वेदनीय को अन्तराय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोडी सागरोपम की है। (१६) सप्ततिर्मोहनीयस्य । मोहनीय कर्म की ७० कोडाकोडी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है। (१७) नामगोत्रयोविंशतिः । __ नाम कर्म और गोत्र कर्म की वीस कोडाकोडी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है। (१८) त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुष्कस्य । आयुष्क कर्म की ३३ सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति जाननी। (१६) अपरा द्वादश मुहूर्ता वेदनीयस्य । _ वेदनीयकर्म की अघन्य स्थिति बारा मुहूर्त की है. कोईक भाचार्य एक मुहूर्त की कहते हैं । (२०) नामगोत्रयोरष्टौ । नाम कर्म और गोत्र कर्म की जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त की है। (२१) शेषाणामन्तमुहूर्तम् । दूसरे कर्मों की यानी-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, भायुष्क और अन्तराय कर्म की अन्तमुहूर्त की जघन्य स्थिति जाननी । (२२) विपाकोऽनुभावः । कर्म के विपाक को अनुभाव (रस पणे भुगतना) कहते हैं. सब प्रकृतीयों का फल यानी विपाकोदय वह अनुभाव है. विविध प्रकार से भुगतना वह विपाक है, कर्म विपाक को भुगतता

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