Book Title: Tattvarthadhigam Sutra
Author(s): Labhsagar Gani
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 98
________________ नवमोऽध्यायः से आये हुवे पुद्गल बंधाते हैं, किससे बंधाते हैं ? मन, वचन, काया के व्यापार विशेष से बंधाते हैं, कैसे ? सूक्ष्म बंधाते हैं बादर नहीं बंधाते. फिर एक क्षेत्र में अवगाह कर स्थिर रहे हवे हों वह बंधाते हैं, आत्मा के कौन से प्रदेश से बंधाते हैं ? आत्मा के सब प्रदेशों में सब कर्मप्रकृति के पुद्गल बंधाते हैं, कैसे पुद्गल बंधाते हैं ? अनन्तानंत प्रदेशात्मक कर्म के पुद्गल हों वहीं बंधाते हैं. संख्यात, असंख्यात या अनन्त प्रदेश के पुद्गल नही बंधाते । (२६) सद्यसम्यक्त्वहास्यरतिपुरुषदवेदशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् । सात वेदनीय, सम्यक्त्व, हास्य, रति, पुरुषवेद, शुभआयुष्य (देव, मनुष्य,) शुभ नाम कर्म प्रकृतियें और शुभ गोत्र यानी उच्च गोत्र वह पुण्य हैं। उससे विपरीत कर्म वह पाप हैं । इत्यष्टमोऽध्यायः अथ नवमोऽध्यायः श्रावनिरोधः संवरः। माश्रव का निरोध करना वह संवर जानना. (२) स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः। वह संवर गुप्ति, समिति, यतिधर्म, अनुप्रेक्षा, (भावना) परिसहजय तथा चारित्र से होता हैं। (३) तपसा निर्जरा च । १२ प्रकार के तप से निर्जरा और संवर दोनों होते हैं।

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