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श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् (४) सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः।
सम्यग् प्रकार से मन, वचन, और काया के योग का निग्रह करना वह गुप्ति कहलाती हैं।
सम्यग् यानी भेद पूर्वक समझ कर सम्यग् दर्शन पूर्वक आदरना, शयन, आसन, भादान, (ग्रहण करना) निक्षेप (रखना) और स्थान चंक्रमण (एक स्थान से दूसरे स्थान को जाना) में काय चेष्टा का नियम (इस प्रकार से करना और इस प्रकार से न करना ऐसी काय व्यापार की व्यवस्था) वह काय गुप्ति, याचन (मांगना) प्रश्न और पूछे हुवे का उत्तर देना, उन विषय में वचन का नियम (जरूर जितना बोलना अथवा मौन धारण करना) वह वचन गुप्ति, सावद्य संकल्प का निरोध तथा कुशल (शुभ - मोक्षमार्ग के अनुकूल ) संकल्प करना अथवा शुभाऽशुभ संकल्प का सर्वथा निरोध वह मनो गुप्ति। (५) ईर्थाभाषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः !
ईर्यासमिति, (देखकर चलना), भाषा समिति, (हितकारक, परिमित-(अल्पवचन असंदिग्ध, निरवद्य और सही अर्थ वाला भाषण), एषणा (शुद्ध आहारादि को गवेषणा ) समिति और उत्सर्ग समिति (पारिष्ठापनिका समिती) ये पांच समिती है। (६) उत्तमःक्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिञ्चन्य
ब्रह्मचर्याणि धर्मः।
१ क्षमा, २ नम्रता, ३ सरलता, ४ शौच, ५ सत्य, ६ संयम ७ तप, ८ निर्लोभता, ६ निष्परिग्रहता और १० ब्रह्मचर्य ये दस प्रकार यति धर्म उत्तम हैं। __ योग का निग्रह (वश) वह संयम सतरा प्रकार का है (१) पृथ्वीकाय संयम, (२) अपकाय संयम, (३) ते काय संजम (४)