Book Title: Tattvarthadhigam Sutra
Author(s): Labhsagar Gani
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 106
________________ नवमोऽध्यायः और ध्यान (धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान) ये अभ्यन्तर तप के छ भेद हैं। (२१) नवचतुर्दशपञ्चद्विभेदे प्रारध्यानात् । इन अभ्यन्तर तप के अनुक्रम से नव, चार, दश, पाँच, और दो भेद ध्यान की अगाउ (प्रायश्चित्तादिक) के हैं। (२२) आलोचनप्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्सर्गतपश्छेदपरि हारोपस्थापनानि । __ आलोयण (गुरु के सामने भूल जाहिर करना) पडिकमण (मिच्छामि-दुक्कड ) इन तदुभय-मिश्र उन दोनों के साथ करना, विवेक (अशुद्ध खान पान का त्याग परिठवण ), कायोत्सर्ग, तप, चारित्र पर्याय छेद, परिहार (त्याग-गच्छ बाहिर), और उपस्थापन (फिर चारित्र देना), ये नव भेद (प्रायश्चित्त के हैं। (२३) ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः । ज्ञान, दर्शन, चारित्र, का विनय और उपचार (ज्ञान, दर्शन, और चारित्र से अपने से अधिक गुणवाले का उचित विनय करना),. इस तरह विनय चार प्रकार का है । (२४) आचार्योपाध्यायतपस्विशैक्षकग्लानगणकुलसङ्घसाधु समनोज्ञानाम् । (१) आचार्य, (२) उपाध्याय, (३) तपस्वी (४) नवीन दीक्षित, (५) ग्लान (रोगी) ६ गण (स्थविर की संतति-जूदा जूदा आचार्य के शिष्य होने पर भी एक आचार्य के पास वाचना लेता हो, ऐसे समुदाय, ७ कुल (एक भाचार्य की संतति), ८ संघ, ९ साधु और १० मनोज्ञ चारित्र को पालने वाले मुनि, इन दश का वैयावध अन्नपान, आसन, शयन इत्यादि देने से करना।

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