________________
४२
श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्
के अग्निशिख और अग्निमाणव, वायुकुमार के वेलम्ब और प्रभंजन, स्तनितकुमार के सुघोष और महाघोष, उदधिकुमार के जलकांत और जलप्रभ, द्वीपकुमार के पूर्ण और अवशिष्ट, दिकूकुमार के अमित और अमितवाहन.
व्यन्तर में किन्नर के किन्नर और किंपुरुष, किंपुरुष के सत्पुरुष और महापुरुष, महोरग के अतिकाय और महाकाय, गंधर्व के गीतरति और गीतयश, यक्ष के पूर्णभद्र और माणिभद्र, राक्षस के भीम और महाभीम, भूत के प्रतिरूप और अप्रतिरूप, पिशाच के काल और महाकाल, ज्योतिष्क के सूर्य और चन्द्र, वैमानिक में कल्पोपपन्न में के देवलोक के नाम माफिक इन्द्र के नाम जानने और कल्पातीत इन्द्रादि नहीं, सब स्वतंत्र हैं ।
पीतान्तलेश्याः ।
पहले की दो निकायों में ( भवनपति और व्यन्तर में ) तेजो तक चार (कृष्ण, नील कापोत, तेजो ) लेश्या होती है ।
(८)
कायप्रवीचारा श्री ऐशानात् ।
ईशान देवलोक तक के देव काय सेवी ( शरीर से मैथुन क्रिया करने वाले ) हैं ।
(७)
(E) शेषाः स्पर्श रूपशब्दमनःप्रवीचारा द्वयोद्वयोः ।
बाकी के दो दो कल्प के देव सिलसिलेवार स्पर्शसेवी (स्पर्श से विषय सेवन करने वाले ), रूपसेवी, शब्दसेवी और (नव में दस में के मिलकर एक, और ११ में १२ वें के मिलकर एक इन्द्र होने से उन चार की दो में गिनती की है, आगे ऊपर दो दो को द्विवचन से इकट्ठे लीये. देखो सूत्र २० ) मनः सेवी है ।