Book Title: Tattvarthadhigam Sutra
Author(s): Labhsagar Gani
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 79
________________ ७० श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् वे इस तरह-क्रोध कृत वचन संरम्भ, मानकृत वचन संरम्भ मायाकृत वचन संरम्भ और लोभकृत वचन संरम्भ ये चार और कारित तथा अनुमत के चार-चार मिलकर बारा भेद वचन संम्भ के हवे इसी तरह काय और मन संरम्भ के बारा-बारा भेद लेने से छत्तीस भेद संरंभ के हए आरंभ और समारंभ के छत्तोस-छत्तीस गिनते १०८ भेद होते हैं । संरम्भः सकषायः परितापनया भवेत्समारम्भः । आरम्भः प्राणिवधः त्रिविधो योगस्ततो ज्ञेयः ।। संकल्प-मारने का विचार वह संरम्भ, पीड़ा उपजानी वह समारम्भ, और हिंसा करनी वह आरम्भ कहलाता है । (१०) निर्वर्तनानिक्षेपसंयोगनिसर्गा द्विचतुर्द्वित्रिभेदाः परम् । दूसरे अजीवाधिकरण से-निर्वर्तना के दो (मूल गुण निर्वर्तनाशरीर, वचन, मन, प्राण और अपान ये मूल गुण निर्वर्तना और उत्तर गुण निर्वतना-काष्ट, पुस्तक, चित्र वह उत्तर गुण निर्वर्तना) निक्षेपाधिकरण के चार (अप्रत्यवेक्षित, दुष्प्रमार्जित, सहसा और अनाभोग-संस्कार), संयोगाधिकरण के दो (भक्तपान और उपकरण) और निसर्गाधिकरण के तीन (अय, वचन और मन) भेद हैं। (११) तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञान दर्शनावरणयोः। ज्ञान, ज्ञानी और ज्ञान के साधनों दर्शन, दर्शनी और दर्शन के साधनों के ऊपर द्वेष करना, निह्नवपणाँ (गुरु मोलवना-औछे ज्ञान वाले पास भणा हो लेकिन अपनी प्रशसा के वास्ते बड़े विद्वान् पास भणा हुवा है ऐसा बतलाना), मात्सर्य ( ईर्ष्या भाव ), अन्तराय ( विघ्न ), आशातना और उपघात ( नाश ) करना वे छ ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण के आश्व बंध के कारण है।

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