Book Title: Tattvarthadhigam Sutra
Author(s): Labhsagar Gani
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 87
________________ ७८ श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् (१७) मारणान्तिकी संलेखनां जोषिता । फिर वह ब्र धारी मारणान्तिक संलेखना का सेवनार होना चाहिये । काल, संघयण, दुर्बलता और उपसर्ग दोष से धर्मानुष्ठान को परिहाणी जानकर उणोदरी आदि तप से आत्मा को नियम में लाकर उत्तम व्रत संपन्न होय वह चार प्रकार के आहार का त्याग कर जीवन पर्यन्त भावना और अनुप्रेक्षा (चिन्तन) में तत्पर रहकर स्मरण और समाधि में बहुधा परायण होकर मरण समय की संलेषणा (अनशन) को सेवने वाला मोक्षमार्ग का आराधक होता है (१८) शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतिचाराः। शका ( सिद्धान्त की बातें में शंका ), आकांक्षा (परमत की इच्छा, इस लोक परलोक के विषय की इच्छा ), विचिकित्सा (धर्म के फन की शंका रखनी- साधु साध्वी के मैले वस्त्र देखकर दुगंछा-करनी, ये भी है, ये भी है-ऐसा मति का भ्रम), अन्यदृष्टि (क्रिया-अक्रिया-विनय और अज्ञान मत वाले ) की प्रशसा करनी और अन्यदृष्टि का परिचय करना ( कपट से या सरल पणे से होते या न होते गुणों का कहना वे संस्तव ), ये सम्यग दृष्टि के अतिचार हैं। (१९) व्रतशीलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम् । __ अहिंसादि पांच अणुव्रत और दिग व्रतादि सात शील में अनुक्रम से ( आगे कहूँगा उस मुजब ) पांच पांच अतिचार होते हैं। (२०) बन्धबधच्छविच्छेदातिभारारोपणान्नपाननिरोधाः । बन्ध ( बांधना ), वध ( मारना ) छविच्छेद (नाक कान वींधने, डाम देना वगेरा), अतिभारारोपण ( हद से ज्यादा नोम

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