Book Title: Tattvarthadhigam Sutra
Author(s): Labhsagar Gani
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 93
________________ ५४ श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् पहला प्रकृति बन्ध - ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्क, नाम, गोत्र और अंतराय ये आठ प्रकार के हैं। (६) पश्चनवद्वयष्टाविंशतिचतुर्द्विचत्वारिंशद्विपश्चभेदा यथा क्रमम् । उन आठ प्रकार के प्रकृति बन्ध के एक-एक करके अनुक्रम से पांच, नव, दो, अठाईस, चार, बयालीस, दो और पांच भेद होते हैं (७) मत्यादीनाम् । मतिज्ञान आदि पांच होने से उनके प्रावरण भी मतिज्ञानावरणीय वगेरा पांच भेद के हैं। (८) चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रा-निद्रानिद्रा-प्रचलाप्रचलाप्रचला-स्त्यानगृद्धिवेदनीयानि च । चक्षु दर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, जिसके उदय से निद्रावस्था मे से सुख से प्रतिबोध (जागना) हो वह निद्रा, जिसके उदय से निद्रावस्था में से दुःख से जाग्रत अवस्था की प्राप्ती हो वह निद्रानिद्रा, जिसके उदय से खडे और बैठे हुवे निद्रा आवे वह प्रचला. जिसके उदय से चलते चलते निद्रा आवे वह प्रचलाप्रचला और जिसके उदय से दिन में धारा हुवा कार्य रात को निद्रावस्था में जगे हुवे की तरह करे वह स्त्यानगृद्धि (थीणद्धि), इस निद्रा के वक्त वज्रऋषभनाराच संघयण वाले को वासुदेव के बल से आधा बल होता है। ये जीव नरक गामी जानना, दूसरे संघयणवाले को इस निद्रा में खुद के मामूली बल से दूणा तीन गुणा बल होता है । ये नौ दर्शनावरणीय के भेद हैं।

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