Book Title: Tattvarthadhigam Sutra
Author(s): Labhsagar Gani
Publisher: Agamoddharak Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 92
________________ अष्टमोऽध्यायः ८३ ॥ अथ अष्टमोऽध्यायः॥ (१) मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः । मिथ्या दर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग वे कर्म बन्ध के हेतु हैं। सम्यग दर्शन से विपरीत वह मिथ्या दर्शन, वह अभिगृहीत ( जानते हुवे हठ कदाग्रह से अपने मतव्य में लगा रहे वे ३६३ पाखंडी के मत) और अनभिगृहीत,इस तरह दो प्रकार का मिथ्यात्व है । विरति से विपरीत वह अविरति । याददास्त का अनवस्थान, अथवा मोक्ष के अनुष्ठान में अनादर और मन, वचन काया के योग का दुष्प्रणिधान वह प्रमाद क्रोधादि कषाय, मन, वचन और काया का व्यापार रूप योग, इन मिथ्यादर्शनादि बन्धहेतुओं में के प्रथम के होते हुवे पिछले का निश्चय होना और उत्तरोत्तरउल्टा पिछले के होते हुवे पहले के की भजना (अनियम) जाननी। (२) सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलानादत्त । कषायवाला होने से जीव कर्म के योग्य पुद्गलों का ग्रहण करता है। स बन्धः । __जीव से पुद्गलों का जो ग्रहण वह बन्ध है। (४) प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशास्तद्विधयः । । प्रकृति बन्ध, स्थिति बन्ध, रस बन्ध और प्रदेश बन्ध ये चार भेद बन्ध के हैं। (५) आयो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुष्कनामगोत्रा न्तरायाः ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122