Book Title: Tattvarthadhigam Sutra
Author(s): Labhsagar Gani
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 84
________________ सप्तमोऽध्यायः ७५ की दृष्टि ) की भावना करनी यानी-हिंसादिक से इस लोक और परलोक में खुद के श्रेय का नाश होता है और खुद की निन्दा होती है, ये बात लक्ष्य ( ध्यान ) में रखनी मतलब कि उनसे होने वाले और होने के नुकसान याद कर उनसे विरमना ( दूर हटना)। दुःखमेव वा। अथवा हिंसादि में दुःख ही है ऐसा भाव रखना। (६) मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि सत्त्वगुणाधिकक्लि श्यमानाविनेयेषु । सब जीवों के साथ मित्रता, गुणाधिक पर प्रमोद, दुःखी जीवों पर करुणाबुद्धि और अविनीत (मूढ ) जोवों पर मध्यस्थता (पेक्षा) धारण करनी। (७) जगत्कायस्वभावौ च संवेगवैराग्यार्थम् । __ संवेग और वैराग्य के वास्ते जगतस्वभाव की और काय स्वभाव की भावना करनी। सब द्रव्यों का अनादि या आदि परिणाम से प्रगटन, अन्तरभाव, स्थिति, अन्यत्व; परस्पर अनुग्रह और विनाश की भावना करनी वह जगत् स्वभाव ये काया अनित्य, दुःख की हेतु भूत, असार और अशुचि से भरी हुई है, ऐसो भावना करनी वह कायस्वभाव, संसार भीमता, आरम्भ, परिग्रह में दोष देखने से अरति. धर्म और धर्मी में बहुमान, धर्मश्रवण और साधर्मी के दर्शन में मन की प्रसन्नता और उत्तरोत्तर गुण की प्राप्ति की श्रद्धा वह संवेगशरीर भोग और संसार की उद्विग्नता ( ग्लानी) से जो पुरुष उपशान्त हुवा उसकी वाह्य और अभ्यन्तर उपाधि में अनासक्ति वह वैराग्य।

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