Book Title: Tattvarthadhigam Sutra
Author(s): Labhsagar Gani
Publisher: Agamoddharak Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 60
________________ चतुर्थोऽध्यायः चालीस हजार, आठवें में छ हजार. नव में दस में में ४००, अग्यार में बारमें देवलोक में ३०० विमान हैं, नवप्रैवेयक में ३१८ विमान है, और अनुत्तर विमानों में पाँच हैं, कुल ८४६७०२३ विमान हैं । हर एक विमान में एक एक सिद्धायतन याने जिनमन्दिर हैं। और हर एक मन्दिर १०० योजन लम्बा ५० योजन चौड़ा और ७२ योजन ऊँचाई में हैं, १२ देवलोक तक प्रत्येक मन्दिर में १८० प्रतिमा जाननी. १२ देवलोक की कुल प्रतिमायें १५२६४४४७६० होती है। प्रैवेयक और अनुत्तर विमान में इन्द्र नहीं है । वास्ते उनके ३२३ मन्दिरों में से हरएक मन्दिर में एक सौ बीस एक सौ नीस की संख्या से ३८७६० प्रतिमायें होती है। सर्व जघन्य स्थिति वाले देवताओं को सात स्तोक से श्वास लेना पडता है। और चतुर्थ भक्त में आहार की इच्छा होती है। पल्योपम की आयुष्यवालों को दिनके मध्य में श्वास लेना पडता है। और दिवस पृथक्त्व में आहार की इच्छा होती है । जितने सागरोपम का आयुष्य हो उतने पक्ष से श्वास लेना पड़ता है और उतने ही हजार वर्ष से आहार की इच्छा होती है। यानी तेतीस सागरोपम के आयुष्य वालों को तेतीस पक्ष ( साडे से ला महिने) से श्वास लेना पडता है । तेतीस हजार वर्ष से आहार की इच्छा होती है । देवताओं को असाता, उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त और साता छ मास तक होती है । बार में देवलोक तक अन्य मति पैदा हो सकते हैं । और निह्नव नव प्रैवेयक तक पैदा हो सकते हैं। (२३) पीतपद्मशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु । तेजो, पद्म और शुक्ल लेश्या दो कल्प के, तीन कल्प के और बाकी के देवों में सिल सिले वार जाननी, यानी पहले दो कल्प में

Loading...

Page Navigation
1 ... 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122