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षष्ठोऽध्यायः (४०) द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ।
जो द्रव्य के आश्रय से रहे और खुद निर्गुण हो वह गुण है । (४१) तद्भावः परिणामः ।
वस्तु का स्वभाव वह परिणाम पूर्वोक्त धर्मादि द्रव्यों का तथा गुणों का स्वभाव वह परिणाम जानना। (४२)
अनादिरादिमांश्च । अनादि और भादि इस तरह दो प्रकार का परिणाम है; भरूपी द्रव्यों में अनादि परिणाम है।
रूपिष्वादिमान् । रूपी में आदिपरिणाम है वह आदिपरिणाम अनेक प्रकार का है। (४४) योगोपयोगी जीवेषु । जीव में भी योग और उपयोग के परिणाम आदि वाले हैं।
* इति पञ्चमोऽध्यायः *
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॥ अथ षष्ठोऽध्यायः ॥
कायवाङ्मनःकर्म योगः। काय सम्बन्धी, वचन सम्बन्धी और मन सम्बन्धी जो कर्म (क्रिया-प्रवर्तन व्यापार ) वह योग कहलाता है।
वे हरेक शुभ और अशुभ दो प्रकार के हैं, अशुभ योग इस तरह जानना-हिंसा और चौरी वगैरा कायिक; निंदा झूठ बोलना कठोर वचन और चाडी वगैरा वाचिक, और किसी का धन हरण