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षष्ठोऽध्यायः परिग्रह, २३ माया, २४ मिथ्यात्व दर्शन, और २५ अप्रत्याख्यान. (ये पच्चीस क्रियाएं नव तत्त्व में दी हुई २५ क्रियाओं जैसी भाव वाली है नवतत्व में दी हुई प्रेम और द्वेष ये दो क्रियाओं इसमें नहीं दी और उनके बदले सम्यक्त्व और मिथ्यात्व ये दो क्रियायें दी है)
१ शुद्ध दर्शन मोहनीय (सम्यक्त्व मोहनीय) के दलियों के अनुभव से प्रशम आदि लक्षण से जाना जा सके ऐसी जो जीवादि पदार्थ विषयक श्रद्धा रूप, जिन-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-साधुओं के योग्य पुष्प, धूपादि सामग्री से पूजन और अन्न-पान वस्त्रादि देने रूप अनेक प्रकार को वैयावच्च करने रूप, शुद्ध सम्यक्त्वादि भाव वृद्धि के हेतुभूत देवादि के जन्म महोत्सव करने वगेरा साता वेदनीय बन्ध के कारणभूत सम्यक्त्व क्रिया. २ सम्यक्त्व से विपरीत वह मिथ्यात्व क्रिया ३ धावन वल्गनादि काय व्यापार, कठोर और असत्य भाषण वगेरा वचन व्यापार और ईष्या, द्रोह, अभिमान वगेरा मनो व्यापार रूप क्रिया वह प्रयोग क्रिया ४ इन्द्रियों की क्रिया अथवा आठ प्रकार के कर्म पुद्गलों का ग्रहण वह समादान क्रिया ५ गमनागमन रूप क्रिया वह ईर्यापथ क्रिया। इस क्रिया से सिर्फ केवली को ही काय योग से एक समय का बन्ध होता है ६ काय का दुष्ट व्यापार वह काय क्रिया । ७ दूसरे का उपघात करे ऐसे गलपाश, घण्टी वगेरा अधिकरण वगैरा से जीवों का हनन करना वह अधिकरण क्रिया। ८ प्रकृष्ट दोष वह प्रदोष क्रोधादि से जो जीव अथवा अजीव पर द्वष करना वह प्रदोष क्रिया । ९ अपने या दूसरे के हाथ से खुद को या दूसरे को पीडा करनी वह परितापन क्रिया । १० खुद के या दूसरे के जीव को हणना या हणाना वह प्राणातिपात क्रिया । ११ रागादि कौतक से अश्वादि देखने वह दशन क्रिया । १२ रागादि के वश स्त्री आदि के अंगों को स्पर्श करना वह स्पर्शन किया। १३ जीव, अजीव, आश्रयी