Book Title: Tattvarthadhigam Sutra
Author(s): Labhsagar Gani
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 59
________________ श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् जिन्होंने जीते वे विजय, वैजयन्त और जयन्त देव जानने. विघ्न हेतू से पराजय (हार ) नहीं-पाए हुवे वे अपराजित सम्पूर्ण उदय के अर्थ में सिद्ध हो गये वे सर्वार्थसिद्ध. (२१) स्थितिप्रभावसुखद्युतिलेश्याविशुद्धीन्द्रियावधि विषयतोऽधिकाः। उनमें पूर्व पूर्व के देवता के मुकाबले में ऊपर ऊपर के देवता स्थिति (आयुष्य), प्रभाव, सुख, कान्ती, लेश्या, विशुद्धि, पटुता (इन्द्रियों की) और अवधिज्ञान के विषय में ज्यादा ज्यादा होते है. (२२) गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः । गति, शरीर प्रमाण, परिग्रहस्थान, (परिवार वगेरा) और अभिमान में पहिले से ऊपर के देवता कम कम होते हैं. दो सागरोपम के जघन्य भायुष्य वाले देवों की गति (गमन) सातवीं नरक तक होती है और तीर्थी असंख्यात हजार के डाकोडी योजन होती है। ___इससे आगे की जघन्य स्थिति वाले देव एक एक कमती नरक भूमी तक जा सकते हैं। गमन शक्ति होने पर भी तीसरी नरक के आगे कोई देवता नहीं गये और जावेंगें भो नहीं। सौधर्म और ऐशान कल्प के देवों के शरीर की ऊंचाई सात हाथ की है सानत्कुमार और माहेन्द्र की छ हाथ, ब्रह्मलोक और लांतक की पांच हाथ, महाशुक्र और सहस्रार की चार हाथ, आनतादि चार की तीन हाथ, प्रेवेयक की दो हाथ और अनुत्तर विमान वासी देव की शरीर की ऊंचाई एक हाथ है. विमानों का अनुक्रम इस प्रकार है, पहेले देवलोक में बत्तीस लाख, दूसरे में अठाइस लाख, तीसरे में बारा लाख, चोथे में भाठ लाख, पाँचवे में चार लाख, छठे में पचास हजार, सातवें में

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