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श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् सागरोपम की एक सुषमसुषमा होती है। तीन कोटाकोटी सागरोपम की सुषमा है। दो कोटाकोटी सागरोपम की सुषमदुःषमा होती है । बयालीस सहस्र वर्ष कम एक सागरोपम की एक दुःषमं सुषमा. होती है । इक्कीस सहस्त्र वर्ष की दुःषमा होती है और उतने ही की दुःषमदुषमा भी होती है । और इन्हीं सुषमसुषमा आदि छहों कालों की अनुलोम प्रतिलोमभाव से अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी होती हैं । अर्थात् अनुलोम (जिस क्रमसे लिखा) वह तो अवसर्पिणी और इसके विपरीत क्रम से अर्थात् प्रथम दु.षमदु:षमा १ पुन: दुःषमा, २ दुःषमसुषमा ३ सुषमदुःषमा ४ सुषमा ५ और षष्ठ सुषमसुषमा यह उत्सर्पिणी है। ये अनादि और अनन्त अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी रात्रि -दिन के सदृश भरत तथा ऐरावत वर्षों में परिवर्तित होती रहती है। अर्थात् उसके अनन्तर द्वितीय निरन्तर चक्र लगाया करती हैं। जैसे-अवसर्पिणी के पीछे उत्सर्पिणी और उत्सर्पिणी के पीछे पुनः अवसर्पिणी, यह चक्र घूमा करता है । और इन दोनों में शरीर, आयु, तथा शुम परिणामां की अनन्त गुण हानि और वृद्धि भी होती चली जाती है । तात्पर्य यह कि अवसर्पिणी कालमें ज्यों-ज्यों दुष्ट कालकी उतरेंगे त्यों त्यों शरीर, आयु और शुभंपरिणामों की हानी होतो जायगी और उत्सर्पिणो में इनकी वृद्धि होती जायगी। तथा अशुभ परिणामों की भी वृद्धि तथा हानि होती जाती है । अर्थात् अवसर्पिणी में आगे आगे के काल में अशुभ परिणामों की वृद्धि होती जायगी। और भरत तथा ऐरावत वर्ष के सिवाय अन्यत्र अन्य वर्षों में एक एक गुण अवस्थित रहते हैं। ने से कुरु वर्ष में सुषमसुषमा ही सदा रहती है; हरिवर्ष तथा रम्यक में सदा सुषमा रहती है। हैमवत और हैरण्यवन वर्षों में सुषमदुःषमा रहती है, अन्तरद्वीप सहित विदेहों में दुःषमसुषमा रहती है। इसी प्रकार मनुष्य क्षेत्रों में काल विभाग सर्वत्र प्राप्त समझना चाहिये।