Book Title: Tattvarthadhigam Sutra
Author(s): Labhsagar Gani
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 50
________________ चतुर्थोऽध्यायः ४१ वे सिलसिलेवार क्ल्पोपपन्न ( स्वामी - सेवकादिमर्यादा वाले इन्द्र - सामानिकादि भेद वाले) तक दस, आठ, पांच और बारा भेद वाले हैं. यानी भवनपति के ( असुरादि ) दस भेद, व्यंतर के आठ ( किन्नरादि ) भेद, ज्योतिष्क ( सूर्य-चन्द्रादि ) पांच भेद और और वैमानिक के ( सौधर्मादि ) बारा भेद है. ( ४ ) इन्द्रसामानि कत्रा यस्त्रिंशपारिषद्यात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्णका भियोग्य किल्विषिकाच कशः । पूर्वोक्त निकार्यों में हर एक के १ इन्द्र, २ सामानिक ( अमात्य, पिता, गुरू, उपाध्याय वगेरा के माफिक इन्द्र समान ठकुराई वाले) ३ त्रयस्त्रिंश (गुरुस्थानीय - मंत्रि-पुरोहित जैसे ) ४ पारिषद्य (सभा में बैठने वाले), ५ श्रात्म रक्षक (अंग रक्षक), ६ लोकपाल (कोटबाल वगेरा पोलिस जैसे ), ७ अनीक ( सेना और सेनापति ), ८ प्रकीर्णक (प्रजा - पुरजन माफिक ), ९ अभियोग्य ( चाकर), १० किल्बिषिक (नीच जो चांडाल माफिक) ये दस दस भेद होते हैं (५) त्राय त्रिलोकपालवर्ज्या व्यन्तर- ज्योतिष्काः । व्यन्तर और ज्योतिष्क निकाय वाले के त्रायस्त्रिंश और लोकपाल नहीं हैं: - ( उन जातियों में त्रास्त्रिंश और टोकपाल नहीं होते.) पूर्वयोर्द्वन्द्राः । (६) पहले की दो निकायों में यानी भवनपति और व्यन्तर में दो दो इन्द्र हैं, तो इस माफिक - भवन्पति में असुरकुमार के चमर और बली, नागकुमार के धरण और भूतानंद, विद्युतकुमार के हरि और हरिरसह, सुवर्णकुमार के वेणुदेव और वेणुदाली, अग्निकुमार

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