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श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् [५] संक्लिष्टासुरोदीरितदुःखाश्च प्राक् चतुर्याः ।
अत्यन्त क्लिष्ट परिणाम वाले असुरों (परमाधामी) के उत्पन्न किये हुवे दुःख चौथी नारकी पहले यानी तीसरी नारकी तक होते है। नारक जीवों को वेदना करने वाले पन्द्रह जात के परमाधामी देव भव्य होने पर भी मिथ्या दृष्टि होते हैं।
पूर्व जन्म में संक्लिष्ट कर्म के योग से आसुरी गति को पाये हुवे होने से उनका इस प्रकार आचार होने से नारकीयों को कई तरह के दुःख उत्पन्न करते हैं। ६] तेष्वेक-त्रि-सप्त-दश-सप्तदश-द्वाविंशति-त्रयस्त्रिंशत
सागरोपमा सत्त्वानां परा स्थितिः । उन नरकों में जीवों की उत्कृष्टी स्थिति सिल सिले वार एक, तीन, सात, दश, सतरा, बाईस और तेतीस सागरोपम की होती है। यानी पहली नरक के जीवों का उत्कृष्ट ( ज्यादा से ज्यादा ) आयुष्य एक सागरोपम का होता है।
दूसरी का तीन सागरोपम, तीसरी का सात सागरोपम, चौथी का दश सागरोपम, पाँचवीं का सतरा सागरोपम, छट्ठो का बाईस सागरोपम, और सातवीं का तेतीस सागरोपम का आयुष्य जानना।
असंज्ञी पहली नारकी में उपजे; भुजपरिसर्प पहली दो नारकी में, पक्षी तीन में, सिंह चार में, उरःपरिसर्प पाँच में, स्त्रियाँ छ में, और मनुष्य सात नारकी में उत्पन्न होते हैं; नारकी में से निकले हुवे जीव तिथंच और मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं । पहली तीन नरकों से निकले हुवे कितनेक जीव मनुष्यपणा पाकर तीर्थकर पणा भी पाते हैं, चार नरक भूमी से निकले हुवे मोक्ष पाते हैं. पाँच से निकला हुवा चारित्र पाता हैं, छ से निकला हुवा देशविरति चारित्र पाता हैं और सात नारकी से निकला हुवा सम्यक्त्व पा सकता है।