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तृतीयोऽध्यायः [७] जम्बूद्वीपलवणादयः शुभनामानो द्वीपसमुद्राः ।
जम्बूद्वीप वगेरा शुभ नाम वाले द्वीप और लवण आदि शुभ नाम वाले समुद्र हैं।
[८] द्विर्द्विविष्कम्भाः पूर्वपूर्वपरिक्षेपिणो वलयाकृतयः । वे द्वीप समुद्र सिलसिलेवार दूणे दुणे विष्कंभ (विस्तार) वाले और पहले पहले द्वीप-समुद्रों को घेरे हुवे वलयाकार (चूडी जैसे गोल) हैं [8] तन्मध्ये मेरुनाभित्तो योजनशतसहस्रविष्कम्भो
जम्बूद्वीपः। उन द्वीप समुद्रों के बीच में मेरु पर्वत जिसकी नाभि है ऐसा गोलाकार एक लाख योजन के विस्तार वाला जम्बूद्वीप है। __ मेरु पर्वत एक हजार योजन भूमि में फैला हुवा, ६६ हजार योजन ऊँचा, मूल में दश हजार योजन विस्तार वाला और ऊपर एक हजार योजन विस्तार वाला है। उसकी एक हजार योजन ऊँचाई का पहला कांड शुद्ध पृथ्वी, पत्थर, वज्ररत्न, और शर्करा से प्रायः (करीब करीब) भरा हुवा है । ६३ हजार योजन ऊँचा दूसरा कांड, रुपे, सोने, अंक रत्न और स्फटिक रत्न से प्रायः पूर्ण है, ३६ हजार योजन ऊँचा तीसरा कांड प्रायः जांबूनद (लाल सुवर्ण) मय है और मेरु की चूलिका चालास योजन ऊँची प्रायः वैडूर्य (नील) रत्नमय है । वह मूल में बारह योजन, मध्य में आठ योजन, और ऊपर चार योजन फैलाव की है। . मेरु के मूल में वलयाकार (चूडी के जैसा ) भद्रशाल वन है। भद्रशाल वन से पाँच सो योजन चढ़े वहाँ ५०० योजन का पलयाकार विस्तार वाला नन्दन वन है। यहाँ से ६२॥ हजार योजन चढ़े