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श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्
भरतखंड का फैलाव ५२६१ योजन है. उससे दूणे दूणे विस्तार वाले पर्वत और क्षेत्र सिल सिलेवार महाविदेह तक जानने और महाविदेह के उत्तर में सिलसिलेवार आधे आधे विस्तार वाले जानने । भरत, हिमवान्, हैमवत, महाहिमवान्, हरिवर्ष, निषेध, महाविदेह, नीलवान्, रम्यक, रुक्मि, हैरण्यवत शिखरी, भैरावत, इस तरह सिल सिले बार लेना
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भरत क्षेत्र की जीवा १४४७१६६ योजन जाननी । इषु विष्कम्भ तुल्य ५२६ योजन और धनुःपृष्ठ १४५२८१ योजन है ।
भरत क्षेत्र के बीच में पूर्व पश्चिम दिशा में समुद्र तक लम्बा वैताढ्य पर्वत है, वह २५ योजन ऊँचा है और ६ | योजन जमीन में अवगाढ़ ( फैला हुवा) है । मूल में ५० योजन विस्तार वाला है । हर पर्वत की ऊँचाई का चौथा भाग जमीन में फैला हुवा है |
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महाविदेह क्षेत्र में निषध पर्वत की उत्तर तरफ और मेरु के दक्षिण में सो कांचनगिरी और चित्रकूट और विचित्र कूट से शोभित देव कुरु नाम की भोग भूमी ( अकर्म भूमी) है. उसका ११८४२ योजन का विष्कम्भ हैं इस तरह मेरु के उत्तर में और नीलवान् के दक्षिण में उत्तर कुरु नाम की भोग भूमी है, इतना सिवाय की उनमें चित्रकूट और विचित्रकूट के बदले दो यमक पर्वत हैं, दक्षिण और उत्तर के वैताढ्य लम्बाई, विष्कम्भ, अवगाह और ऊँचाई में बराबर हैं । इस तरह हिमत्रत और शिखरी, महाहिमवत् और रुक्मि, निषध और नीलवान्भी समान है.
धातकी खंड और पुष्करार्ध के चार छोटे मेरु पर्वत मोटे मेरु पर्वत से ऊचाई १५ हजार योजन कम हैं यानी ८५ हजार ऊंचे है. पृथ्वीतल में छ सो योजन कम यानी ६४०० योजन विस्तार वाले हैं, उनका पहला कांड महामेरु के माफिक १०००