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श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् और तीस लाख, पच्चीस लाख, पन्द्रह लाख, दस लाख, तीन लाख, पाँच कम एक लाख और पाँच इस तरह सब मिलकर ८४ लाख नरकावास हैं। ऊपर के पहले प्रतर का नाम सीमन्तक है, और आखरी का नाम अप्रतिष्ठान हैं।
[३] नित्याशुभतरलेश्या-परिणाम-देह-वेदना-विक्रियाः।
इन सात पृथ्वीयों में नीचे नीचे ज्यादा ज्यादा अशुभतर लेश्या, परिणाम, शरीर, वेदना और विक्रिय ( वैक्रिय पण ) निरन्तर ( हर वक्त) होता है । यानी एक क्षणभर भी शुभ लेश्या वगेरा नहीं होती.
पहली दो नारकी में कापोत, तीसरे में कापोत तथा नील, चौथी में नील, पाँचवी में नील तथा कृष्ण, और छट्ठी सातवी में कृष्ण लेश्या होती है. ये लेश्यायें सिल सिले वार नीचे की नारकी में ज्यादा ज्यादा संक्लिष्ट अध्यवसाय वाली होती है बंधन, गति, संस्थान, भेद, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श अगुरुलघु और शब्द ये इन दस प्रकार के अशुभ पुद्गलों का सिल सिले वार ज्यादा अशुभतर परिणाम नरक पृथ्वी में होता है। चारों तरफ हमेंशा अन्धेरे वाली और श्लेष्म मूत्र, विष्टा, लोही, पुरु (पीप-राध) वगेरा अशुचि पदार्थों से लेप की हुई वो नरक भूमियें हैं।
पंख उखड़े हुवे पक्षी की तरह क्रूर गुस्से वाले, करुण, वीमत्स और दिखने में भयंकर आकृति वाले, दुःखी और अपवित्र शरीर नारकी के जीवों के होते हैं, पहली नारकी में नारक जीवों का शरीर ७॥ धनुष्य और छ आंगुल का है । उसके बाद वालों का सिलसिले वार दूणा दूणा जानना ।
प्रथम तीन नारकी में उष्ण वेदना, चौथी में उष्ण और शीत, पांचवी में शीत और उष्ण और छट्टो सातवीं में शीत वेदना जाननी