Book Title: Tattvarthadhigam Sutra
Author(s): Labhsagar Gani
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 12
________________ प्रथमोऽध्यायः (७) निर्देश-स्वामित्व-साधना-धिकरणऽस्थितिविधानतः । निर्देश (वस्तु स्वरूप), स्वामित्व (मालिकी), साधन (कारण) अधिकरण (आधार), स्थिति (काल) और विधान (भेद संख्या) से जीवादि तत्त्वों का ज्ञान होता है। ___ जैसे-सम्यगदर्शन क्या है ? गुण हैं द्रव्य है; सम्यग्दृष्टि जीव अरूपी है, किसको सम्यग दर्शन ? आत्म संयोग से, पर संयोग से और दोनों के संयोग से प्राप्त होता है । इसलिए आत्मसंयोग से जीव का सम्यग दर्शन; परसंयोग से जीव या अजीव का अथवा एक से ज्यादा जीवों या अजीवों का सम्यग्दर्शन; उभय ( दोनों के) संयोग से जीव अजीव का सम्यग्दर्शन और जीव-जीवों का सम्यग्दर्शन । सम्यग्दर्शन कैसे होता है ? निसर्ग या अधिगम से होता है । ये दोनों दर्शन मोहनीयकर्म के क्षय, उपशम या क्षयोपशम से होते हैं । अधिकरण तीन प्रकार का है। आत्मसन्निधान, परसन्निधान, और उभयसन्निधान, आत्म सन्निधान याने अभ्यन्तर सन्निधान, परसन्निधान याने बाह्यसन्निधान और उभय सन्निधान याने बाह्य ऽभ्यन्तरसन्निधान । ___सम्यग्दर्शन किसमें होता हैं ? आत्मसन्निधान से जीव में सम्यग्दर्शन होता है, बाह्यसन्निधान से और उभयसन्निधान से स्वामित्व (किसका सम्यग्दर्शन) नामक द्वार में बताये हुए भांगे लेने। ___ सम्यग्दर्शन कितने काल रहता है ? सम्यग्दृष्टि सादि सात और सादि अंनत दो तरह का है; सम्यग्दर्शन सादि सान्त ही है, जघन्य से (कम से कम ) अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट से (अधिक से अधिक) कुछ अधिक छासठ सागरोपम काल तक रहता है; क्षायिक समकिती छद्मस्थ की सम्यगदृष्टि सादिसांत है और सयोगी अयोगी

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