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द्वितीयोऽध्यायः (१८) लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रियम् । लब्धि-क्षयोपशम और उपयोग-सावधानता ये दो तरह की भावेन्द्रिय है. गति और जात्यादि कर्मों से, और गति जात्यादि को श्राघरण करने (ढकने) वाले कर्म के क्षयोपशम से और इन्द्रिय के आश्रयभूत कमों के उदय से जीष की जो शक्ति उत्पन्न होती है वह लब्धि कहलाती है। ___ मतिज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम से हुवा जो ज्ञान का सद्भाव वह लब्धि इन्द्रिय कहलाता है, और स्वविषय में जो ज्ञान का व्यापार उसे उपयोगेन्द्रिय कहते हैं, जब लब्धीन्द्रिय होती है तब उपकरण और उपयोग होते हैं, क्योंकि उपकरण का आश्रय निवृत्ति हे और उपयोग उपकरणेन्द्रिय द्वारा ही होता है ।
(१६) उपयोगः स्पर्शादिषु । स्पर्शादि (स्पर्श, रस, गंध, चक्षु, और श्रवण, सुनना) के घिषे उपयोग होता है।
(२०) स्पर्शनमसन-घ्राण-चतुः-श्रोत्राणि । ___ स्पर्शनेन्द्रिय (त्वचा) रसनेन्द्रिय (जीभ). घाणेन्द्रिय (नासिका), चक्षुरिन्द्रिय (नेत्र) और श्रोनेन्द्रिय (कान), ये पांच इन्द्रियें जाननी ।
(२१) स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दास्तेषामर्थाः । स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द ये उन (इन्द्रियों) के अर्थ-विषय हैं.
(२२) श्रुतमनिन्द्रियस्य । श्रुतज्ञान ये अनिन्द्रिय यानी मन का विषय है।
(२३) वाय्वन्तानामेकम् ।