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श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् स्पर्शनादि इन्द्रियें पांच है।
इन्द्र यानी आत्मा उसका चिह्न वह इन्द्रिय या जीव की आज्ञा के आधीन, जीव ने देखी हुई, जीव ने रंची हुई, जीव ने सेवी हुई, वह इन्द्रिय जाननी।
(१६) द्विविधानि । वे दो प्रकार की है।
(१७) निर्वृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् । निवृत्ति-आकार, इन्द्रिय और उपकरण-तलवार की धार की तरह साधन पणा रूप इन्द्रिय ये दो भेद द्रव्येंद्रिय के है। ____अंगोपाङ्ग नाम कर्म के उदय से इन्द्रियों के अवयव होते हैं,
और निर्माण नाम कर्म के उदय से शरीर के प्रदेशों की रचना होती है। द्रव्येन्द्रिय की रचना अगोपांग तथा निर्माण कर्म के आधीन है। अंगोपांग और निर्माण नाम कर्म के उदय से विशिष्ट जो इन्द्रिय का श्राकार उसको निवृत्ति इन्द्रिय कहते हैं; उसके बाह्य और सभ्यन्तर दो भेद है।
बाह्य निर्वृत्ति जाती भेद से अनेक प्रकार की है। - जैसा की मनुष्य के कान भ्र की तरह नेत्र की दोनों बाजू है, और घोड़े के कान उसके ऊपर के भाग में तीक्ष्ण अप्रभाग वाले हैं। अभ्यन्तर निवृत्ति में स्पर्शनेन्द्रिय तरह तरह के आकार वाली है। रसनेन्द्रिय खुरपा (उस्त्रे) के आकार की है, घ्राणेन्द्रिय अतिमुक्तक (पुष्प) के आकार की है। चक्षुरिन्द्रिय मसूर और चन्द्र के आकार की है। श्रोत्रेन्द्रिय कदम्ब पुष्प के आकार की है, स्पर्शनेन्द्रिय और द्रव्यमन स्वकाय प्रमाण है, और बाकी की इन्द्रिये अंगुल के असंख्य भाग प्रमाण वाली है। और स्वविषय ग्रहण करने की शक्ति स्वरूप उपकरणेन्द्रिय है।