Book Title: Tattvarthadhigam Sutra
Author(s): Labhsagar Gani
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 24
________________ - प्रथमोऽध्यायः शब्द नय है, जैसे मेरुपर्वत था, है और रहेगा, यहां शब्दनय अतीत, वर्तमान, और भविष्य काल के भेद से मेरुपर्वत को भी भिन्न मानता है, पर्याय शब्दों में व्युत्पत्ति के भेद से भिन्न अर्थ को ग्रहण करने वाला समभिरूढ़ नय है, शब्दनय पर्याय का भेद होने पर भी अर्थ को अभिन्न मानता है, लेकिन समभिरूढ़ नय पर्याय के भेद से भिन्न अर्थ को स्वीकार करता है, जैसा कि समृद्धि वाला होने से इन्द्र कहलाता है, पुर को विदारने से पुरन्दर कहलाता है। शब्दों की प्रवृत्ति का कारणभूत क्रियामहित अर्थ को वाच्य तरीके स्वीकार करने वाला एवंभूत नय है, जैसे कि जलधारणादि चेष्टा समेत घट को उस वक्त ही घट तरीके मानता है, लेकिन जिस वक्त खाली घट पड़ा हो उस वक्त ये नय उसको घट तरीके स्वीकार नहीं करता। इनमें से शुरू के चार (खास कर ) अर्थ का प्रतिपादन कर्ता होने से अर्थनय कहलाता है, और पिछले तीन नयों का तो ( मुख्य रीति से ) शब्द वाच्यार्थ विषय होने से वे शब्दनय कहलाते हैं। दूसरी तरह भी नयों के भेद हैं, जैसे- विशेषग्राही जो नय हैं वो अर्पितनय कहलाते हैं, सामान्य ग्राही जो नय हैं वे अनर्पितनय कहलाते हैं। ___ लोक प्रसिद्ध अर्थ को ग्रहण करने वाले व्यवहार नय कहलाते हैं और तात्त्विक अर्थ को स्वीकार करने वाले निश्चय नय कहलाते हैं जैसा कि व्यवहार नय पांच रंग का भ्रमर होते हुए भी श्याम भ्रमर कहाता है और उसको निश्चय नय पांच वर्ण-रंग का भ्रमर मानता है। ज्ञान को मोक्ष का साधन मानने वाला ज्ञान नय और क्रिया को उस तरह स्वीकार करने वाला क्रिया नय कहलाता है।

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