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द्वितीयोऽध्यायः
।। अथ द्वितीयोऽध्यायः॥ पहले अध्याय में जीवादिक तत्त्व कहे, अब जीव और उनका लक्षण शास्त्रकार बतलाते हैं. (१) औपशमिकक्षायिको भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्वमौ. दयिक-पारिणामिकौ च।
औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव ये तीन तथा औदायिक और पारिणामिक ये दो मिलकर पाँच ही भाव जीव के स्वतत्व है यानी जीव को यह भाव होते हैं (पारिणामिक और औदयिक भाव अजीत्र को भी होते हैं क्योंकि पुद्गलों के परिणमने और कर्मोदय से शरीर वगैरा होते हैं ।
(२) द्विनवाष्ट दशैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमम् । पूर्वोक्त औपशमिकादि भावों के दो, नो, अठारा, इक्कीस, और तीन भेद सिल सिले वार हैं। पाँच सूत्रों से उन भावों के ५३ भेद सिलसिले वार बतलाते हैं
(३) सम्यक्त्वचारित्रे। पहले औपशनिक भाव का समकित और चारित्र ये दो भेद है यानी औपशामिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र ।
(४) ज्ञान-दर्शन-लाभ-भोगो-पभोग-वीर्याणि च ।
केवलज्ञान ( केवल ज्ञान-दर्शन और क्षायिक ज्ञान-दर्शन एक ही समझने, क्योंकि केवल ज्ञान-दर्शन क्षायिक भाव से ही प्रगट होते हैं)। केवलदर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य तथा सम्यक्त्व और चारित्र ये नो भेद क्षायिक भाव के हैं।