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प्रथमोऽध्यायः
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दूसरे की अपेक्षा ( मदद) बगैर एकदम होता है । आत्मा का इसी तरह का स्वभाव होने से ज्ञान दर्शन का समय समय उपयोग़ केवली को बराबर होता है ।
(३२) मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च ।..
मतिज्ञानं, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान ये तीन विपर्यय (त्रिपरीत - उलटे ) रूप से भी होते हैं यानी अज्ञान रूप होते हैं ।
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(३३) सदसतोर विशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ।
मिथ्यादृष्टि को उन्मत्त की तरह सत् ( विद्यमान ) श्रसत् ( अविद्यमान . ) की विशेषता वगेरह विपरीत अर्थ प्रण किया हुवा होने से वे पहले के कई हुवे तीनों (निश्च ) अज्ञान माने जाते हैं ।
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(३४) नैगमसङ्ग्रहव्यवहारजु सूत्रशब्दा नयाः । और ये पाँच नय हैं
शब्द ऋजुसूत्र
नैगम, संग्रह, व्यवहार, ( समभिरूढ़ और एवंभूत सहित सात नय होते हैं )
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(३५) आद्यशब्दौ द्वित्रिभेदौ ।
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पहला (नैगम) नय दो तरह का देशपरिक्षेपी और सर्व परिक्षेपी और शब्द नय तीन तरह का सांप्रत समभिरूढ़ और एवंभूत है, उक्त नैगमादिक सप्त नय के लक्षण इस रीत से कहते हैं- देश में प्रचलित शब्द, अर्थ और शब्दार्थ का परिज्ञान वह 'नैगमनय देशग्राही और सर्वग्राही हैं. अर्थों का सब देशों में औपचारिक या एक देश में संग्रह वह संग्रह नय है, लौकिक रूप, और feat का बोधक व्यवहार नय है, मौजूदा - विद्यमान अर्थों 'का कथन या ज्ञान वह ऋजुमूत्रनय है । शब्द से जो अर्थ में असंक्रमं वह समभिरू, व्यञ्जन और अर्थ में प्रवृत्त एवंभूतनय.