Book Title: Tattvarthadhigam Sutra
Author(s): Labhsagar Gani
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 15
________________ श्री तत्त्वार्था धगमसूत्रम् बगैर आत्मा को प्रत्यक्ष होने से ये तीन ज्ञान प्रत्यक्षप्रमाण है । जिसके जरिये से पदार्थ जानें जावें वह प्रमाण कहलाता है, अनुमान, उपमान, आगम श्रर्थापति-संभव अभाव प्रमाण भी कोई मानता है । लेकिन यहाँ उनको ग्रहण न करके और पदार्थ के निमित्तभूत होने से मति श्रुत ज्ञान रूप परोक्षप्रमाण में अन्तर् भूत होते हैं । (१३) मति - स्मृति-संज्ञा - चिन्ता ऽऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् । मति (बुद्धि) स्मृति ( स्मरण याददास्त ) संज्ञा ( ओलख -पहचान ) चिन्ता (तर्क) और आभिनिबोध ( अनुमान ) ये सब एक ही अर्थवाचक है । - (१४) तदिन्द्रियाऽनिन्द्रियनिमित्तम् । वह पहले कहा हुवा मतिज्ञान इन्द्रियनिमित्त और अनिन्द्रियनिमित्तक (मनोवृत्ति मनोज्ञान का ) और ओघ ज्ञान है । (१५) अवग्रहे - हा - sपाय-धारणाः । यह मतिज्ञान, भवग्रह ( इन्द्रियों के स्पर्श से जो सूक्ष्म अव्यक्त ज्ञान होता है, वह ), ईहा ( विचारणा ), अपाय ( निश्चय ), और धारणा इन चार भेदों वाला है । (१६) बहु-बहुविध - क्षिप्र निश्रिता-नुक्त- वाणां सेतराणाम् । G बहु, बहुविध ( बहुत तरह ), क्षिप्र, ( जल्दी से ), अनिश्रित, ( चिन्ह वगैर), अनुक्त, ( कहे बगेर ), और ध्रुव, (निश्चित), छ ये और उनके छ प्रतिपक्षि यानी अबहु ( थोड़ा ), अबहुविध ( थोड़ी तरह), अक्षीप्र ( लम्बे काल से ) निश्रित ( चिन्ह से ), उक्त (कहा हुत्रा ) और (अनिश्चित ), इन बारा भेदों से अवग्रहादिक अध्रुव होता है ।

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