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श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् दशांग, (८) अंतकृद्दशांग, (६) अनुत्तरोपपातिक दशांग, (१०) प्रश्नव्याकरण, (११) विपाक और (१२) दृष्टिवादसूत्र । ___ अब मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में क्या फरक है ? वह यहाँ लिखते हैं:___ उत्पन्न हुआ नाश नहीं पाया ऐसे पदार्थ को ग्रहण करने वाला वर्तमानकाल विषयक मतिज्ञान है । और श्र तज्ञान तो त्रिकाल विषयक है यानी जो पदार्थ उत्पन्न हुए हैं जो उत्पन्न होकर नाश पाये हैं और जो अब पीछे उत्पन्न होने वाले हैं उन सबको ग्रहण करने वाला है।
अब अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट में क्या भेद है ? सो बतलाते हैं।
वक्ता के भेद से ये दो भेद होते हैं, वो इस तरह-सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, परमर्षि ऐसे अरिहंत भगवानों ने परमशुभ और तीर्थप्रर्वतनरूप फलदायक ऐसे तीर्थंकर नामकर्म के प्रभाव से कहा हुवा और अतिशय वाला और उत्तम अतिशय वाली वाणी और बुद्धि वाला ऐसा भगवंत के शिष्यों (गणधरों), का गूंथा हुवा वह अंगप्रविष्ट. गणधरों के बाद के अत्यन्त विशुद्ध आगम के जानने वाले, परम प्रकृष्ट ( अतिमहिमा वाला), वाणी और बुद्धि की शक्ति वाले भाचार्यों ने काल, संघयण, और आयु के दोष से अल्प शक्ति वाले शिष्यों के उपकार के लिये जो रचा वह अंगबाह्य ।
सर्वज्ञप्रणीत होने से और ज्ञेय पदार्थ का अनन्त पणा होने से मतिज्ञान के निस्वत श्रु तज्ञान का विषय बड़ा है।
श्रत ज्ञान का महा विषय होने से उन-उन अधिकारों के आश्रय से प्रकरण की समाप्ति की अपेक्षा अंग उपांग के भेद हैं ।
अंगोपांग की रचना न हो तो समुद्र को तैरने की तरह सिद्धांत का ज्ञान दुःसाध्य (मुशकिल ) होता हैं इस वास्ते पूर्व, वस्तु,