Book Title: Tarangvati Author(s): Pritam Singhvi Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth PratishthanPage 16
________________ तरंगवती के कारण छितरे, अस्तव्यस्त, सुंदर छोरवाले एवं प्रकृतिसहज मुलायम और धुंघराले बालों से उसका मस्तिष्क सुरोभित हो रहा था । उसका तप से कृश और पांडुर शरीर लावण्य से भरपूर होने के कारण अभ्रसंपुट बाहर से निकल आये पूर्णिमा के चंद्र का उपहास करता था। पतले, गोलाई लिए हुए, जुडे और मोडदार, सुंदर लौ और संपूर्ण अच्छे लक्षणवाले उसके कान बिना आभूषण के होने पर भी सुंदर लगते थे। उत्तरीय से बाहर निकाला हुआ निराभरण उसका हाथ मानो फेन से बाहर निकल आये सनाल झुके हुए कमल को शरमिंदा कर रहा है। गृहस्वामिनी का विस्मयभाव विस्मित दासियों ने श्रमणी के रूपकी प्रसंशा में ऐसे उद्गार गुंजा दिया कि सुनकर उस गृह की मर्यादावेल लाजवंती जैसी गृहिणी बाहर आ गई । उसका स्वर गंभीर एवं मधुर था । सब अंग प्रशस्त थे और कम किन्तु मूल्यवान गहने पहने थे । श्वेत दुकूल का उत्तरासंग उसने किया था । . अभिजात सुंदर उस आर्या को चेलियों के साथ अपने आँगन को सुहावना करती देखकर वह प्रसन्न हुई । निर्मल चीवर पहने उस आर्या को मानो मथित सिंधु से बाहर आई फेनावृत्त लक्ष्मी-सी देख विस्मित चित्त से उसे वन्दना की। चेलियों को विनयपूर्वक प्रणाम कर क्षणभर गृहिणी उस आर्या का चंद्रलोक जैसा देदीप्यमान मुख को आश्चर्यचकित नयनों से देखती रही । श्याम पुतलियोंवाली आँखों के कारण वह मुख ऐसी शोभा दे रहा था । मध्य में जैसे भ्रमरयुगलवाले पूर्ण विकसित कमल । कोमल हाथ पैरवाली लक्ष्मी जैसी उस आर्या को देख एकाएक वह गृहिणी इस प्रकार सोचने लगी : - 'मैंने इसके समान सुंदरी - स्वप्न, शिल्प, चित्र या कथाओं में न कभी देखी, न सुनी । लावण्य से गढी यह कौन सौभाग्यमंजरी होगी ? अथवा क्या रूपगुणयुक्त चंद्र की ज्योत्स्ना स्वयं यहाँ पधारी है ? प्रजापति ने सभी उत्तम तरुणियों के रूपगुण का नवनीत लेकर अपनी संपूर्ण कला से क्या इस सुंदरी का निर्माण किया होगा? मुंडित अवस्था में भी जब उसका लावण्य ऐसा है तो - गार्हस्थ्यभाव में तो उसकी रूपश्री अहो ! क्या होगी ! उसके आभूषणशून्य और मैले अंगों पर जहाँ मेरी दृष्टि स्थिर हो जाती है वहीं से हट ही नहीं सकती ! मैं प्रत्येक अंग देख 'यह अतिशय सुंदर है' ऐसे भाव से चिटक जाती हूँ देखनेPage Navigation
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