________________
तरंगवती
९३
पत्नी बनी है । चित्र में जो युगल मृत्यु से भेंटा उसे परस्पर पुनः जोडकर दैव ने कितना सुंदर किया !
कुछ लोगों ने उसे श्लाघ्य कहा, तो कुछ सुंदर कुछ उसे विनीत तो कुछ वीर, कुछ अभिजात कुछ उसे अनेक विद्याओं में प्रवीण, तो कुछ सच्चा विद्याओं का ज्ञाता कह रहे थे उसे इस प्रकार राजमार्ग पर अनेक लोगों की प्रशंसा प्राप्त करता हुआ मेरा प्रियतम मेरे साथ अपने देवविमान जैसे प्रासाद में आ पहुँचा ।
1
प्रमुदित परिजन उठकर सामने आये और व्यवस्थित रखी पूजा सामग्री से उसका पूजन किया । ज्वार के डंठल वारे- फेरे और आशीर्वचन प्रदान किये दही, लाजा एवं पवित्र पुष्पों से देवताओं की बड़े पैमाने पर पूजा की गई । जहाँ पुष्पों की बदनवार लटकाई गई थी और कमलों से जगमगाते कलशों से मंडित थे, ऐसे चौपास परकोटे से सुन्दर लगते उस महालय में पूर्ण मनोरथ प्रमुदित मनसे मेरे प्रियतम ने प्रवेश किया । हम दोनों वहाँ ठहरे ।
इसके पश्चात् मैं भी लोगों की बडी भीडवाले विशाल श्वसुरगृह के सुंदर प्रांगण में गई और मैंने किये अपराध के लिए लज्जा प्रगट की ।
स्वागत और पुनर्मिलन
वहाँ श्रेष्ठी और सार्थवाह के साथ घर के सब स्वजन आये थे और ऊँचे आसन पर बैठे थे । हमें निहार रहे, साक्षात् देवतुल्य उन गुरुजनों के चरणों में हमने सिर टेक दिये । उन्होंने हमें गले लगाया, हमारे मस्तक सूँघे और अश्रुपूर्ण नेत्रों से बड़ी देर तक वे हमें देखते रहे ।
इसके बाद हम मेरी सासजी के चरणों में झुके । अपार आँसू बहाती स्तनों से दूध उमडाती वे हमसे गले मिली ।
तत्पश्चात् आँसू छलका रहे मेरे भाइयों के चरणों में मस्तक नवाकर विनयपूर्वक क्रमशः उन्हें प्रणाम किया ।
हमने अन्य सब लोगों को भी हाथ जोडे और उनसे हाल-चाल पूछा । परिचारक वर्ग सारा हमारे पास आया और हमारे चरण छूए ।
धात्री एवं सारसिका ने अबतक थामे अपने आँसुओं को निर्बन्ध बहने दिया जैसे लता पर से ओसबिन्दु झरने लगे हों ।