Book Title: Tarangvati
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

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Page 124
________________ ११२ तरंगवती समुद्र पार फैली हुई है। चित्रपट द्वारा हम पुनः एक दूसरे को पहचान गये । उसने मेरे पिता से मेरी मांगनी की किन्तु पिता ने मुझे उसे देने से इन्कार किया। मैंने दूती भेजी और बाद में साँझ के समय पूर्वजन्म के अनुराग से प्रेरित हो, मैं मदनविकार से संतप्त होकर मेरे प्रियतम के घर पहुंची और बुजुर्गों के डर के कारण हम दोनों नौका में बैठकर भाग निकले। गंगा के विशाल तट पर हमें चोरों ने पकडा । . व्याध को पूर्वभव का स्मरण इस प्रकार उस रमणी ने रोते-सिसकते अपने सब सुख-दुःख का ब्योरा यथाक्रम उन बंदिनियों से कह सुनाया। रोते-धोते इस प्रकार उसने जो वृत्तान्त बंदिनियों को कहा वह सुनकर मुझे अपना पूर्वजन्म याद आ गया और थोडी देर मुझे मूर्छ आ गई। स्वस्थ होने पर मुझे पूर्वजन्म के मातापिता, पत्नी, कुलधर्म और चरित्र का स्मरण हो आया । याद आये हुए स्वप्न जैसा उसका वृत्तांत सुनकर मेरा हृदय वात्सल्य और करुणाभाव से कोमल बन गया । मैं मन में सोचने लगा : ..."गंगा नदी के आभूषण समान यह वही चक्रवाक युगल है और जिसके चक्रवाक की मैंने अनजान में हत्या की थी। कामभोग के रसावेग से परिचित ऐसे मुझसे इस कामतृष्णाविह्वल और बडी कठिनाई से संगम प्राप्त इस युगल को पुनः हनना उचित नहीं। . इस कारण मेरे जीवित को होड में रखकर भी मेरे पाप का प्रतिकार भले हो जाए, मैं उनको जीवन-दान दूंगा और इसके बाद परलोक सुधारने की चिंता करूंगा।" तरुण दंपती को जीवनदान और छुटकारा इस प्रकार संकल्प करके, उनकी सहाय करने हेतु मैं कुटिया से बाहर निकला और उस तरुण के बंधन ढीले किये । तत्पश्चात् बख्तर से सज्ज हुआ, वेश धारण किया और कमर में छुरा बाँध लिया । वसुनंद और तलवार लेकर में सत के समय गुप्तता से तरुण को पत्नी के साथ पल्ली से बाहर ले गया और अत्यंत

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