Book Title: Tarangvati
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

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Page 132
________________ तरंगवती १२० श्रेष्ठ द्वारा रोक-थाम और अनुमति जिनवचनों से प्रभावित बुद्धि जिनकी है, संसार के स्वरूप से जो विज्ञ हैं ऐसे मेरे मातापिता आँसूप्रवेग थामकर मुझसे कहने लगे, "बेटी ! यौवन के उदयकाल में ही ऐसा साहस क्यों किया ? तरुणवय में श्रमणधर्म का पालन बहुत कठिन है । इसके कारण कदाचित् तुमसे धर्म की कोई विराधना हो जायगी । कामभोग भोग लो इसके बाद भी तप का प्रारंभ किया जा सकता है ।" उन्हें आश्वस्त करते हुए मैने कहा, "भोगों का सुख क्षणिक है और फल उसका कटु होता है। कुटुंबजीवन अतिशय दुःखमय होता है। मुक्तिसुख से बढकर कोई सुख नहीं । विषयों से हम जबतक मुक्त न हो जायें, संयमपालन का हममें जबतक शरीरबल है और जबतक मृत्यु आकर हमें उठा न ले जाये तबतक हमारे लिए तपाचरण ही इष्ट है । यह सुनकर पिताने आशिष - वर्षा की । 'इन्द्रियों रूप डाकुओं से तारुण्य घेर लिया होने के कारण तुम इस संसारसागर को निर्विघ्न तर जाओ ।' सार्थवाह का अनुनय हमारे बाँधवों ने हम दोनों को आश्वासन एवं अभिनंदन दिया । इतने में मेरे सास-ससुर मेरे प्रियतम से विनयपूर्वक मनाने लगे, 'बेटे ! किसीने तुम्हें कुछ अनुचित कह दिया ? यहाँ तुम्हें किसी बात की कमी है ? तुम्हें हमारा कोई अन्यायअपराध दिखाई पड़ा ? - जिसके कारण मन खट्टा हो जाने से तुमने प्रव्रज्या ग्रहण की ? धर्म का फल स्वर्ग है । स्वर्ग में यथेष्ट भोग प्राप्त होते हैं और लौकिक श्रुति है कि विषयसुख का सार सुंदरी है । परन्तु तुम्हें तो इस धरती पर ही अप्सरा समान सुंदरियाँ प्राप्त हैं । इसलिए प्रथम कामभोग का आनंद उठा लेने पर बाद में तुम धर्म में प्रवृत्त हो जाना । बेटे ! हम दोनों को, तथा राजसुलभ सुख एवं वैभव को, इस बेटी को एवं हमारे सारे विपुल धनभंडार को तुम क्यों त्याग रहे हो ? तुम कुछ वर्ष कुछ भी चिंता - व्यग्रता किये बिना कामभोग भोगना उसके बाद पाकी वय में उग्र श्रमणधर्म का आचरण करना ।'

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