Book Title: Tarangvati
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

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Page 131
________________ ११९ तरंगवती के संकल्प में से डगमगाने के लिए बाधा खडी करने का प्रारंभ किया । परन्तु मन को विचलित करनेवाले उस करुण विलाप के विघ्न की प्रियतमने उपेक्षा की। आयुष्य सतत गतिमान होने के कारण जो मनुष्य पाँचो इन्द्रियों को सहर्ष विषयों से विमुख कर लेता है, उसकी ही सुगति के पथ पर चलने की योग्यता होती है। भोग के प्रति विरक्त और परलोकसुख-प्राप्ति के साधन ऐसे धर्म में अनुरक्त, वैराग्यवृत्ति से ओतप्रोत और प्रव्रज्या ग्रहण करने के निश्चयी उसने सब विघ्नों की अवगणना करके अपने पुष्पमिश्रित केश लोच डाले । मैंने भी स्वयं केशलुंचन करके मेरे प्रियतम के साथ उन श्रमण के चरणों में पडी और बोली, "मुझे दुःखों से मुक्ति दिलवाने की कृपा करें।" तब उसने हमको यथाविधि सामायिक व्रतग्रहण करवाया, जिसका एक बार किया गया स्मरण भी सद्गति की ओर प्रगति कराता है। उसने हमें प्राणिवध, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह एवं रात्रिभोजन से विरमने का नियम ग्रहण करवाया । जन्ममृत्यु का शिकार बनते इस शरीर से बंधे रहना हम भी नहीं चाहते थे इसलिए तपश्चर्या की लालसा से आठ उत्तरगुण भी ग्रहण किये । स्वजनों का आगमन परिजनों से समाचार प्राप्त होते ही उस समय हमारे दोनों के माता-पिता अपने-अपने परिवार के साथ वहाँ आ पहुँचे। हे गृहस्वामिनी ! हमने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली यह सुनकर नगरी के पुरुष एवं स्त्रियाँ, बच्चे एवं बूढे उद्विग्न होकर वहाँ आने लगे। हमारे रिश्ते-नातेवालों से तथा हमें देखने आनेवालों से वह विशाल उपवन भर गया । वहाँ जमी भीड में लोगों के शरीर ढक गये होने से केवल मुख-मस्तक की पंक्तियाँ ही पंक्तियाँ दृष्टिगोचर होती थीं। प्रव्रज्या लेने की तत्परता की भावोर्मि से शोभायमान लगते हमको देखकर बांधव एवं मित्रवर्ग अत्यंत शोकान्वित बन गये। हमारे दोनों के मातापिता रोते बिसूरते दौडते-गिरते आये । मेरे सास-ससुर हमको देखते ही मूर्छित हो गये ।

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