Book Title: Tarangvati
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

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Page 128
________________ ११६ तरंगवती प्रत्याख्यान, विनय, स्थान एवं गमन से संबंधित प्रतिक्रमण और भाष्यअभाष्य आदि सब क्रमशः उन्होंने मुझे सिखाया । समय बीतने पर मैंने मोक्षमार्ग के सोपान समान और आचार के स्तंभरूप उत्तराध्ययन के छत्तीसों अध्ययनों का संपूर्ण ज्ञान आत्मसात् किया । ब्रह्मचर्य के रक्षक समान आचारांग के नौ अध्ययनों का और बाकी के आचारांग श्रुतस्कंध का ज्ञान भी प्राप्त किया । इस प्रकार निर्वाण तक पहुँचने के मार्ग समान सुविहित शास्त्र आचारांग का मैंने सांगोपांग ज्ञान ग्रहण किया । इस के पश्चात् मैने सूत्रकृतांग, स्थानांग और समवायांग पूरे सीखे और बाकी के अंग-प्रविष्टं कालिक श्रुत को भी ग्रहण किया । जिनमें सर्व नयों का निरूपण किया गया है ऐसे विस्तृत नौ पूर्वों को भी जाना तथा सब द्रव्यों के भाव एवं गुण विषयक विशिष्टता को भी समझ लिया । इस प्रकार श्रमणधर्म के आचरण में दृढ रहकर मैं पृथ्वी पर विहार करने लगा और मान-अपमान के प्रति समता रखकर बारह वर्ष से भी अधिक समय बिताया । मेरी श्रद्धा निरंतर बढती जा रही है और यथाशक्ति में संयमपालन करता रहता हूँ । इस प्रकार में भावित चित्त से इस समय उत्तम धर्मकामना कर रहा हूँ । वैराग्य तरंगवती और उसके पति में वैराग्यवृत्ति का उदय 1 इस प्रकार श्रमण का वृत्तांत सुनकर हमको अपने पूर्ववृत्तांत का स्मरण हो आया । इससे उस समय हमने भुगते दुःख मुझे पुनः याद आये । अश्रुपूर्ण दृष्टि से हमने एकदूसरे की ओर देखा : 'अरे !यह तो वही व्यक्ति !' इस प्रकार हम उसे तब पहचान गये - मानो विष का अमृत हो गया । यह व्यक्ति जो इतना क्रूरकर्मी था तथापि वह संयमी बन सका, तो हम भी दुःख का क्षायक तपाचरण करने के योग्य हैं । दुःख के स्मरण से कामभोग से हमारा मन उचट गया और उस श्रमण जो समाधिस्थ होने के प्रयत्न में था उसके चरणों में गिरे । इसके बाद खड़े होकर सिर पर अंजलि रचकर हमने उस समय के बंधु

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