Book Title: Tarangvati
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

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Page 108
________________ तरंगवती निकलने की बात बताई। श्रेष्ठ का दुःख एवं रोष यह सुनकर अत्यंत कुलाभिमानी श्रेष्ठीका मुखचंद्र ऐसा निस्तेज हुआ जैसा राहुग्रस्त कलानिधि । “धिक्कार है ! धिक्कार है ! तुमने कितना अकरणीय किया!" हाथ धुनते हुए श्रेष्ठी इस प्रकार कहने लगे, "हाय ! हमारा कुलीन गोत्र अपयश से घास के समान जलकर खाक हो जाएगा। . वह स्वयं तो अपने घर गई इसलिए इसमें सार्थवाह का कुछ अपराध नहीं । अपना स्वच्छंदी हेतु पार पाने के लिए उतावली हो जानेवाली हमारी लडकी का ही दोष है। _ जिस प्रकार जलप्रवाह के उमड-घुमडने से नदियाँ अपने तट तोड़ देती हैं इस प्रकार दुःशील स्त्रियाँ कुल का गौरव तहस-नहस कर देती हैं। सैकडों दोष जगानेवाली और पद-प्रतिष्ठायुक्त कुनवे को मलिन कर देनेवाली पुत्री इस दुनिया में जिस कुल में पैदा नहीं होती है, वही सच्चा भाग्यवान है, क्योंकि पतित-चारित्रवाली पुत्री जीवनपर्यंत स्वभाव से भद्र एवं परवश सब बन्धनों के हृदय में दाहरूप बनती है । - कपटपूर्वक मीठी बातें कर के अन्य में विश्वास जगाने वाली स्त्री का स्वरूप दर्पण के प्रतिबिंब-जैसा दुग्राह्य होता है।" ____इतने व्यग्र एवं व्यथित हो चुकने के बाद उन्होंने मुझसे पूछा, "तुमने मुझे यह बात पहले क्यों नहीं बताई ? यदि बता देती तो मैं उसे ही उसका हाथ सौंप देता और तब यह कलंक न लगता।" तब मैंने उत्तर दिया, "उसने अपने प्राणों की सौगंद देकर कहा था कि जब तक मैं जाकर उसे न मिलूँ तब तक तुम मेरा यह रहस्य छिपाये रखना । उसे दिये इस वचन के पालन के हेतु एवं मारे डर के मैं यह कह न सकी । आपको यह बात निवेदित न करने के अपराध के लिए मैं आपके चरणों में गिरकर कृपा की भीख माँगती हूँ।" सेठानी का विलाप - यह बात सुनते ही सेठानी तुम्हारे बिछोह एवं अपयश के दुःख से मूर्छित हो गई। उसे सहसा गिरकर बेसुध हुई देखकर परिवार के सब लोग दीनभाव से

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