________________
तरंगवती
९५
में अपूर्व ऐसा हमारा सुन्दर विवाहोत्सव मनाया गया । हमारा वह लग्नोत्सव इतना अनुपम हुआ कि लोगों के लिए विशेष दर्शनीय एवं सबका वार्तालाप - विषय बन गया । हमारे दोनों कुलीन परिवार निरंतर प्रीति एवं स्नेह से जुडकर सुखदुःख के परस्पर समभागी बने और एक ही कुटुंब जैसे हो गये ।
मेरे प्रियतम ने पाँच अणुव्रत एवं गुणव्रत धारण किये और वह अमृत समान जिनवचनों के अगाध जल में मग्न हुआ । मेरे सारे मनोरथों की पूर्ति हो गई और उन्हें पूरे करा देनेवाले पूर्वकृत एक सो आठ आयंबिल के तप की समाप्ति
का उत्सव मनाया ।
यह हो जाने पर मैंने दासी से पूछा, 'मैं प्रियतम के साथ जब चली गई तब हमारे घर में और तुम्हारे पर क्या क्या गुजरा ?
सारसिका से प्राप्त वृत्तांत
इसके उत्तर में सारसिका कहने लगी, 'तुम मेरे गहने ले आओ' - कहकर तुमने जब मुझे रवाना किया तो मैं हमारे घर गई । घर के लोग कामकाज में व्यस्त थे । द्वार खुला और बिन- पहरा था इसलिए जरा सहमती हुई मैं महालय के अंदर चली गई ।
वहाँ अंतःपुर के कमरे में से सब अत्यंत मूल्यवान आभूषणों से भरपूर करंडक लेकर मैं लौट आई। तुम्हें न देखने पर मैंने वहाँ सब जगह तलाश की। अंत में विषादग्रस्त चित्त से हाथ में रत्नकरंडक लेकर मैं घर वापस आई ।
"हाय मेरी स्वामिनी" जैसे विलापवचन बडबडाती, अंतपुर में चारों ओर देखती, छाती पीटती मैं फर्श पर लुढक पड़ी। होश में आने पर अकेली ही विलाप करती मैं मन में इस प्रकार सोचने लगी :
“यदि कन्या की यह अत्यंत गुप्त बात मैं स्वयं जाकर नहीं कहूँगी तो श्रेष्ठी मुझे इसके कारण सजा करेंगे। तो अब मुझे वह बात ही बता देनी चाहिए । लम्बी रात पूरी होने तक तो वह भी दूर-दराज खिसक गई होगी और बात कह देने से मेरा अपराध भी कम हो जाएगा ।"
मैंने मन में इस प्रकार सोचने में शय्या में निद्रारहित रात बिताई । प्रातःकाल श्रेष्ठी के चरणों में गिरकर तुम्हारे पूर्वजन्म के स्मरण की एवं प्रियतम के साथ भाग