Book Title: Tarangvati
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

Previous | Next

Page 120
________________ १०८ तरंगवती चक्रवाकमिथुन का क्यों विनाश किया ?' ____मैं सोच में पड़ा, 'अरेरे ! अनेक पूर्वपुरुषों ने जिसका जतन किया उस हमारे कुलधर्म, परम्परा एवं वंश की कीर्ति तथा वचन का मैंने दुष्टतापूर्वक विनाश क्यों किया ? निर्लज्ज बनकर जिस पुरुष ने अपने ही हाथों अपने कुलधर्म को नष्ट किया होता है, उसकी ओर लोग घृणा करते हैं । अब मैं जीवित रहकर क्या करूंगा?' इस प्रकार मानो कृतांत ही मेरी बुद्धि को प्रेरित कर रहा हो ऐसे विचार मुझे आ रहे थे। फलतः चक्रवाक की चिता के लिए जो बहुत सारे ईधन जुटा कर मैंने आग जलाई थी उसमें कूदकर मैं भी अल्प क्षणों में जल मरा । इस प्रकार कुलधर्म एवं व्रतरक्षा में सर्व प्रकार से संयत एवं तत्पर मैं ऐसा निजकी निंदा, जुगुप्सा, गर्हणा करता हुआ, संवेगपूर्ण चित्त से धर्मश्रद्धा से विशुद्ध चित्त मैने आत्महत्या की, फिर भी नर्क में न गया। श्रीमंत कुल में व्याध का पुनर्जन्म इसके पश्चात गंगानदी के उत्तर तट पर रहनेवाले, धनधान्य एवं स्वजनों से समृद्ध एक श्रीमंत व्यापारी के कुल में मेरा जन्म हुआ। किसानों से भरेपूरे काशी नाम के रमणीय देश में जिस कुल में मेरा जन्म हुआ वहाँ सर्वोत्तम गुणविख्यात उत्सव मनाया गया । उस देश के मनोरम कमलसरोवर, उद्यान एवं देवमंदिर देखने में लीन हो जाते प्रवासियों की गति धीमी पड़ जाती थी। वहाँ सागरपत्नी गंगा द्वारा जिसके प्राकार की रक्षा होती थी ऐसी द्वारिका समान वाराणसी नाम की कृष्ट नगरी थी । वहाँ के मानी एवं विनयी व्यापारी लोग इतने समर्थ थे कि प्रत्येक एक करोड के माल की खरीद-बिक्री कर सकता था। वहाँ के राजमार्ग पर स्थित भवन इतने उत्तुंग थे कि सूर्य भूमि के दर्शन केवल तब कर सकता था जब वह आकाशतल में बीच बीच रह गई खाली जगह में प्रवेश करता था। यहाँ रुद्रयश मेरा नाम रखा गया और क्रमशः मैं लेखन आदि विविध कलाएँ सीखा।

Loading...

Page Navigation
1 ... 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140