Book Title: Tarangvati
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

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Page 113
________________ १०१ तरंगवती दोष स्पष्ट दिखाई देते हों और जो लोक में सर्व सिद्ध हो उस द्रव्य को प्रत्यक्ष विषय जानो। जिस द्रव्य के गुण नहीं दिखाई देते, परंतु जिसके गुणांश से जो मुख्यतः अनुमान किया जा सकता है और इस प्रकार जिसके गुणदोष ज्ञात हो सके उस द्रव्य को अनुमान का विषय मानो। तीनों कालों के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष द्रव्यों के श्रुतज्ञान द्वारा जो ग्रहण कर सकें उसे उपदेश कहा जाता है। जीवतत्त्व जिनवर का दर्शन है कि जीव सर्वदा वर्ण, रस, रूप, गंध, शब्द और स्पर्श आदि गुणों से रहित है। उसे आदि-अंत भी नहीं। वह शाश्वत आत्मा है, अयोनि है, इन्द्रियरहित है । वह इन्द्रिार्थों से मुक्त है, अनादि एवं अनंत है । उसमें विज्ञानगुण है। - देहस्थ होने के कारण, जो सुखदुःख का अनुभव करता है, वह नित्य है और विषयसुख का ज्ञाता है उसे आत्मा जानो। आत्मा इन्द्रियगुणों से अग्राह्य है; उपयोग, योग, इच्छा, वितर्क ज्ञान एवं चेष्टा आदि गुणों से उसका अनुमान हो सकता है; विचार संवेदन, संज्ञा, विज्ञान, धारणा, बुद्धि, ईहा, मति एवं वितर्क आदि जीव के लिंग हैं। ___ शरीर में जीव विद्यमान है या नहीं इस पर जो चिंतन-संशय करता है वही आत्मा है, क्योंकि यदि जीव ही नहीं है तो संशय करनेवाला ही कोई नहीं होता। कर्म की शक्ति से जीव रोता है, हंसता है, बनाव-सिंगार करता है, डरता है, सोचता है, त्रस्त होता है, उत्कंठित होता है और क्रीडा भी करता है। . शरीर में विद्यमान जीव बुद्धि से जुडी पाँच इन्द्रियों के गुणों से गंध लेता है, सुनता है, देखता है, रसास्वाद करता है और स्पर्श अनुभव करता है। मन, वचन एवं काया की क्रिया द्वारा होती त्रिविध प्रवृत्ति से जुडने पर जीव शुभ या अशुभ कर्म में फँस जाता है।

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