Book Title: Tarangvati
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

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Page 114
________________ १०२ तरंगवती जीव आसक्त होने पर कर्म करने लगता है और विरक्त होने पर कर्म त्याग देता है - यही है जिनवर से दिया गया बँध एवं मोक्ष के उपदेश का संक्षेप। कर्म के कारण जिसका स्वरूप ढक गया है ऐसा जीव, गागर में मथन की क्रिया में रई की भाँति बारबार यहाँ बंधता है तो वहाँ छुटकारा पाता है। क्वचित् कर्मराशि को त्यजता है तो क्वचित् ग्रहण करता हुआ संसारयंत्र में सनध जीव रहँट की तरह चक्कर काटता है। शुभ कर्म के सुयोग से वह देवगति पाता है, मध्यम गुण से मनुष्यगति, मोह से तिर्यंचगति और पापकर्म से नरकगति पाता है। कर्म रागद्वेष के अनिग्रह से कर्म उत्पन्न होता है - जिन्हें जिनवर ने कर्मबंध के उद्भावक बताया है। प्राणिवध, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, अरति, जुगुप्सा, मन-वचन-काया का अशुभ योग, मिथ्यादर्शन, प्रमाद, पिशुनता, अज्ञान, इन्द्रियों का अभिग्रह - ये सब संकल्पयुक्त बनने पर आठ प्रकार के कर्मबंध के कारण बनते हैं ऐसा जिनवर ने निरूपित किया है। जिस प्रकार तैलाभ्यंग किये हमारे अंग पर गर्द चिपकती है वैसे रागद्वेषरूप तेल मर्दित व्यक्ति को कर्म चिपकता है, यह समझ रखना । दारूण द्वेषाग्नि द्वारा कर्म को जीव विभिन्न रूपों में परिणित करता है - जिस प्रकार जठराग्नि प्रत्यक्ष होकर पुरुष के औदारिक शरीर में विविध परिणाम दिखाता है उसी प्रकार कर्मशरीर से जुडे जीव को जानो। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष, नाम, गोत्र एवं अंतराय - ऐसे आठ प्रकार के कर्मों के छः परिमित भेद और ग्रहण, प्रदेश एवं अनुभाग अनुसार विभाग बनते हैं। ___ जिस प्रकार जमीन पर छिडक दिये विविध प्रकार के बीज अपने विविध गुणानुसार पुष्प एवं फल के रूप में अनेकविधता प्राप्त करते हैं वैसे योगानुयोग बाँधा गया अशांत गुणयुक्त एक नया कर्म विविध विपाक के रूप में अनेकता प्राप्त करता है।

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