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तरंगवती
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से मुक्त होकर वह अक्षय सुखदायक मोक्ष पाता है ।
अनेक भवों के भ्रमण दरम्यान प्राप्त हुए कर्मों से मुक्त होकर वह नि:संग, सिद्धों की स्वभावसिद्ध ऊर्ध्वगति को प्राप्त करता है ।
मुख्य देवलोक के ऊपर अर्थात् तीन लोक के शीर्षस्थान पर अर्जुन और शंख जैसी श्वेतवर्णी, छत्ररत्नवाली पृथ्वी आई है। उसके सिद्धि, सिद्धिक्षेत्र, परमपद, अनुत्तरपद, ब्रह्मपद, लोकस्तूपिका और सीता आदि नाम हैं ।
इस इषत्प्रागभारा अथवा सीता से एक योजन दूर लोकांत है । उसके ऊपर के तीसरे भाग में ही सिद्धों का अवस्थान होने की बात कही गई है। सब भावों के यथार्थ रूप के ज्ञाता सिद्धने रागद्वेष निःशेष किये होते हैं। इसलिए वह उनसे पुन: लेपित नहीं होता ।
इस भव को छोडने की अंतिम क्षणों में उसका जिन प्रदेशों के संचययुक्त संस्थान होता है वही संस्थान उसकी सिद्धावस्था में होता है । वह आकाश में, सिद्धों से भरपूर सिद्धालय में, अन्य अनेक सिद्धों के साथ अविरुद्ध भाव से बसता
उस श्रमणने इस प्रकार उपदेश दिया । वह पूरा हुआ तब हे गृहस्वामिनी, हम हर्ष से रोमांचित हुए और मस्तक पर अंजलि रचकर उनसे कहा, 'आपका अनुशासन हम चाहते हैं ।'
आगे मेरे प्रियतम ने उस साधु को विनयपूर्वक वंदन करके कहा, 'आप भरयौवनावस्था में निःसंग बने इससे आपका दीक्षित होना सराहनीय है । कृपया यह बताइए कि आपने यह श्रामण्य किस प्रकार अपनाया ? हे भगवन्, मुझ पर अनुकंपा कीजिए और कहिए । मुझे वह जानने का अत्यंत कुतूहल है ।'
तिस पर उस प्रशस्यमना और जिनवचनों में विशारद श्रमणने मधुर, संगत और मितवचनों में निर्विकार और मध्यस्थ भाव भरकर इस प्रकार कहा : श्रमण का पूर्ववृत्तांत
चंपा के पश्चिम में स्थित एक जनपद के निकट का अटवीप्रदेश अनेक मृग, महिष, तेंदुओं और वन्य गजों से सभर था । उस जंगल की गहराई में एक