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तरंगवती
९७ चित्कार करके इस प्रकार रोने लगे जैसे गरुड के भय से काँपता नागकुल ।
सुध आने पर सेठानी अनेक प्रकार से विलाप करती रोने लगी। इससे अनेक परिजनों को भी रुदन आया ।
हे स्वामिनी, उस समय तुम्हारे सब भाई, भावजें एवं कई परिजन भी तुम्हारे वियोग के दुःख से अति करुण रूदन करने लगे पुत्री स्नेह के वश करुण क्रंदन करती कोमलहृदया तुम्हारी अम्मा से सेठ ने विनीत भाव से इस प्रकार अभ्यर्थना की :
"विशुद्ध शील-कुल के यश में लुब्ध लोगों के घर पुत्री उत्पन्न होकर वह दो अनर्थों का कारण बनती है : पुत्रीवियोग और अपयश । पूर्वकृत कर्मों के फलस्वरूप जो विधिनिर्मित होता है उस प्रकार शुभाशुभ घटित होने पर सब स्ववश अथवा अवश बनते हैं।
शील एवं विनयपूर्ण मेरी बिटिया को दोष देना उचित नहीं । कुटिल विधाता द्वारा ही वह इस संसार में प्रेरित हुई है। उसे जो अपने पूर्वजन्म का स्मरण हुआ और अपने उस जन्म के पति के साथ चली गई तो उसमें उससे कोई बडा अपराध नहीं हुआ ।"
"इसलिए मेरी बच्ची को तुम वापस ले आओ । वह कोमल, पतली, निर्मलहृदया, अनेकों की प्यारी मेरी बिटिया को बिना देखे मैं एक पल भी जीवित नहीं रह सकूँगी।"
इस प्रकार अत्यंत करुण वचन कहकर सेठ के चरणों में गिरकर सेठानी ने सेठ की अनिच्छा थी फिर भी उसने मनुहारपूर्वक सेठ से "अच्छा" कहलाया। तरंगवती की तलाश और उसका प्रत्यानयन
सेठानी का अतिशय अनुरोध बढता गया । सेठ को अंत में कहना पडा, "तुम धैर्य रखो, मैं तुम्हारी बेटी को ला देता हूँ। सार्थवाह के घर से यदि सुराग मिले तो मैं प्राप्त करता हूँ।"
"तुम क्यों उसे बाहर ले गई ?" ऐसे ऐसे अनेक प्रश्नो एवं वाग्बाणों से घर के सभी लोगों ने रोषपूर्वक मुझे बीधा और पाठ पढाया