Book Title: Tarangvati
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

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Page 106
________________ ९४ तरंगवती सबसे मिल लेने पर श्रेष्ठी एवं सार्थवाह के लिए गजमुख के आकार वाली स्वर्ण की सुराही में मुँह धोने के लिए जल लाया गया। हे गृहस्वामिनी, हम स्वस्थ होकर जब वहाँ बैठे तब हमारे सब बांधवोंने कौतूहल से हमारे पूर्वभव के विषय में जानना चाहा । उनको मेरे पति ने चक्रवाक के रूप में हमारा सुन्दर भव, मृत्यु से हुआ वियोग, चित्रालेखन और समागम, घर से पलायन, नौका में रवाना, दूर अनजान प्रदेशी में पहुँचना, किनारे उतरना, चोरों द्वारा अपहरण, चोरपल्ली में प्राण संकट में, चोर द्वारा बंधनमुक्ति एवं पलायन, जंगल से बाहर निकलना, क्रमशः बस्ती में प्रवेश, कुल्माषहस्ती से मिलन - यह सारा हमने जिस प्रकार अनुभव किया था उस प्रकार कह सुनाया । आर्यपुत्र के मुख से हमारा वृत्तांत सुनकर हमारे दोनों पक्ष के स्वजन शोक एवं रुदन करने लगे। मेरे पिताजी ने हम से पूछा, 'तुमने मुझे यह बात पहले क्यों न बताई ?' बताते तो ऐसी आपत्ति न आती और न लांछन लगता । . सज्जन अपने पर उपकार अल्प भी होने पर जब तक प्रत्युपकार करता नहीं तब तक ऋण समझ, कृतज्ञभाव से उसे बहुत बडा मानता है । जो पुरुष उपकार-बोझ तले दबने पर, बढकर वृद्धिंगत होते उस को प्रत्युपकार द्वारा लौटाए बिना कैसे साँस ले सकता होगा? वह जबतक अपने पर किये उपकार का दूना बदला नहीं दे सकता तबतक वह सज्जन मंदरपर्वत जितना भारी बोझ अपने सिर पर ढोता है । जिसने तुम्हें जीवनदान देकर हमको भी जीवनदान दिया उस मनुष्य को मैं निहाल कर दूंगा। ऐसे अनेक भावोद्गार प्रकट करके, हे गृहस्वामिनी, श्रेष्ठी एवं सार्थवाह ने हमारे मन आश्वस्त कर दिये ।। स्वजन, परिंजन एवं इतर जनों को हमारे प्रत्यागमन से बहुत प्रसन्नता हुई। नागरिक आकर उस समय कुशल पूछने लगे । उनको, मंगलवादकों एवं मंगल पाठ करनेवालों को स्वर्ण और स्वर्णाभूषण देकर यथेष्ट सत्कार किया। कुल्माषहस्ती को प्रसन्नतापूर्वक एक लाख स्वर्णमुद्राएँ और मेरे स्वजनों की ओर से एक-एक आभूषण दिया गया। विवाहोत्सव कुछ दिनों के बाद मेरे कुलीन परिवार के वैभव के अनुरूप एवं नगर

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