Book Title: Tarangvati
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

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Page 104
________________ ९२. तरंगवती तरुणों एवं दासीजनों की अनुगामिनी होकर मैं प्रियतम के आगे प्रयाण करने लगी। स्वर्णाभूषणों से विभूषित उत्तम अश्व पर आरूढ मेरा प्रियतम अपने मित्रों समेत मेरे पीछे आ रहा था । मेरी भावनें अपने-अपने परिवार के साथ मुझे मिलने आयी थीं । वे भी उत्तम वाहनों पर चढकर मेरे साथ नगरप्रवेश के समुदाय में सम्मिलित हो गईं। बडे लोगों के संकट और उत्सव, दोष एवं गुण, आना और जाना, प्रवेश और निर्गमन आदि विषय लोगों को सर्वविदित होते हैं । अगवानी मांगलिक तुरही नाद, शुभ दक्षिणावर्त शकुन और अनेक मंगल निमित्तों की प्राप्ति के साथ नगरी के उन्नत देवद्वार (पूर्व द्वार) में होकर हमने कौशाम्बीमें प्रवेश किया। हम राजमार्ग पर आ गये । वह मांगलिक एवं महकते पुष्पों से सजाया गया था। उसके दोनों ओर देखने के कुतूहल से प्रेरित नरनारी के झुंडों की भीड लग गई थी और ऊँचे प्रासादों की पंक्तियाँ एवं हाट-बाजारों की कतारें शोभा बढा रही थीं। लोगों के मुखपद्मों का समूह हमारी ओर घुम गया था जैसे विकसित कमलवन हवा के झकोरे से एक ओर मुख मोड लेता है । उत्सुक जनता हाथ जोडकर प्रेम छलकती दृष्टि से मेरे प्रियतम को मानो आलिंगन दे रही थी। प्रवास से लौट आये प्रियतम को देखने से लोग अघाते न थे - जैसे मेघसंसर्ग से मुक्त शरद के चंद्र का उदय अधिकाधिक देख रहे हों । राजमार्ग पर उपस्थित ब्राह्मणों की आशिष और अन्य लोगों की ओर से बधाई एवं हाथ जोड़कर किये जाते अभिवादन आदिका स्वीकार करने में व्यस्त मेरा स्वामी पार पाता न था । वह ब्राह्मणों, श्रमणों एवं बुजुर्गों को हाथ जोडकर मस्तिष्क नवाता, मित्रों को गले लगाता और अन्य सबके साथ संभाषण करता था। कुछ लोग कह रहे थे : 'श्रेष्ठी के चित्रपट्ट में जो चक्रवाक व्याध से बिद्ध होकर मरा चित्रित था वह यह स्वयं ही है; और जो चक्रवाकी चक्रवाक के पीछे मौत से भेटती अंकित की थी वही नगरसेठ की पुत्री होकर जन्मी है और उसकी

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